Thursday, January 21, 2010

दिल्ली की सर्दी और थेथरई

रात में तकरीबन एक बजे के आसपास ऑफिस से घर के लिए निकला। रूटीन यही होता है साढ़े तीन बजे से रात के पौने एक तक ऑफिस और आखिरी बुलेटिन के बाद घर वापसी। ठंड जमा देने वाली थी कोहरे ने रास्ते पर चुनौतियां गढ़ दी थीं। यात्रा का योग धूमिल करने की पूरी योजना थी। लेकिन मीडिया के लोग ‘बेहया’ होते हैं। तो हम बेहयाई पर उतारू थे...गाड़ी घर की ओर दौड़ पड़ी थी। एफएम का संगीत गाड़ी में गूंज रहा था और उससे कहीं ज्यादा ऊंची आवाज़ें उड़ रही थीं ऑफिस की कुंठाओं को ओढ़े। फलां खबर...फलां ट्रीटमेंट...यानि थेथरई....थेथरई....और थेथरई।

ज़रा सोचिए अगर थेथरई शब्द का इजाद न हुआ होता तो बहुत सारे लोग करते क्या। काशीनाथ सिंह की काशी की अस्सी में थेथरई के लिए एक बनारसी टर्मिनोलॉजी है। कभी मौका मिले तो पढ़िएगा। खैर थेथरई चल रही थी पत्रकार खबरों को पेश करते हुए, लिखते हुए जागता है और खबरों के प्रसारित होने या फिर छपने के बाद चैतन्यता की अवस्था प्राप्त करता है। यानि तब उस पर थेथरई करने के स्कोप ढूंढ़े जाते हैं। अस्तु थेथरई चल रही थी। चूंकि कोहरा गज़ब का था लिहाज़ा हमारे ड्राइवर ने किनारा पकड़ना ही बेहतर समझा फुटपाथ की लकीर को देखता हुआ गाड़ी हांक रहा था और हम उसे रह रह कर स्पीड बढ़ाने पर हउंक देते थे। ठंड के ‘चरित्र’ पर भी बातचीत निकल पड़ी थी कि आखिर ठंड के इतना बिलबिलाने के पीछे मंतव्य क्या है। पहले शुरू हुई परिचर्चा फिर बहस और बाद में खालिस थेथरई। इसी बीच नज़र फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे पड़ी गठरियों जैसी कुछ चीज़ों पर जम गई। ध्यान से देखा तो ये इंसान थे। राजधानी दिल्ली का फुटपाथ और उसपर अपनी ज़िंदगी को आसमान के नीचे दांव पर लगाते इंसान।
मन ने झुठलाया कि ये इंसान तो नहीं होंगे। देश तरक्की दर तरक्की कर रहा है। इठलाती बलखाती अर्थ व्यवस्था ने प्रधानमंत्री से लेकर तमाम नेताओं परेताओं तक को सम्मोहित कर रखा है। वित्त मंत्री गोलगोल लहज़े में कहते हैं कि अर्थव्यवस्था एकदम सीधी है ऊपर की ओर। खुश होइए कि आप भारत में हैं। एहसान मानिए हमारे दिमाग का जिसने आर्थिक मंदी के दौर में भी चुनाव करा दिया, झारखंड में दो हज़ार करोड़ का घोटाला करवाया इसके बावजूद अर्थ व्यवस्था भन्नाट है। विपक्ष के तो बोल नहीं फूट रहे रह रह कर एक राग। चाहे वक्त भोर का हो, दोपहर का या शाम का मंहगाई मंहगाई। अरे भाई मंहगाई में भी इंसान ज़िंदा तो है और अरे हम तो ये कहेंगे जो भूख से मर रहा है वो इंसान ही नहीं है। अब देखिए क्या जंगल में कोई जानवर मरता है भला पहले भी तो इंसान जंगलों में ही रहता था। जो भूखों मर रहे हैं काहिल है सारे। हाथ पांव न चलाना पड़े सरकार रोटी दे दे। खैर....

तो फुटपाथ पर ज़िंदगियां बिखरीं हुईं थीं। ठिठुरती अकड़ती और ठंड से छुपती ज़िंदगियां। यहां से वहां तक कुछ इनमें भाग्य के धनी भी थे जिन्हे बस स्टाप की छत रात में नसीब हो गई थी। भईया अपना अपना भाग्य। एक युवराज आजकल मुख्तसर अंदाज में घूम रहे हैं। यहां वहां घूम घूमकर अघा रहे हैं और कहते हैं तुम भी अघाओ कि कांग्रेस का राज है। कलावती की झोपड़ी से, दलित बस्ती में बैठ कर कलेवा करते, या फिर बुंदलेखंड की धूल में ‘पक्की’ ज़मीन ढूंढ़ते युवराज युवाओं को ढूंढ़ रहे हैं। कह रहे हैं बहुत हुआ परिवारवाद अब ‘फ्रेश एंट्री’ होगी। काश कि दिल्ली के फुटपाथ पर ठंड से अकड़ते ठिठुरते इन लोगों में कोई युवा होता। लेकिन यहां ज्यादातर तो बूढ़े बुज़ुर्ग, महिलाएं या बच्चे ही नज़र आ रहे हैं। और फिर ये ‘गैर इंसान’ होंगे भी कितने…अब जितने भी हों वोट बैंक तो नहीं हैं न तो छोड़िए साहब मरने दिजिए।

शीला आंटी क्या क्या देखेंगी। उनकी भी तो उम्र का लिहाज़ करिए। अब देखिए न एक सिरदर्द हो तो...कभी बसों में आग लगनी शुरू होती है तो थमती ही नहीं। अभी जनता को ‘मेट्रो फील’ देने के लिए बढ़ाया तो है दाम बिजली का, पानी का, सड़क पर चलने का। और फिर कॉमन वेल्थ गेम का बोझा पड़ा है सो अलग। सफाई करानी है बड़े पैमाने पर। सड़कें बन रही हैं। रंग रोगन हो रहा है कम नहीं है क्या। कॉमन वेल्थ गेम के पहले तक खूबसूरत लुक देना है राजधानी को। ये लक्ष्य है ‘एम’ है सो मुख्यमंत्री जी लगीं हुईं है। झुग्गियां हटाई जा रही है ‘पैच’ है ये सब विकास की तस्वीर में। मैं फुटपाथ से काफी आगे निकल आया हूं अब वहां कुछ दिख नहीं रहा है कोहरा और घना हो गया है। अब समझा मंत्री क्यों ‘सन्न’ से गाड़ियों से निकलते हैं फुटपाथ पर नहीं चलते। डर लगता होगा शायद कि ऐसा न हो कि पैदल चलें, फुटपाथ पर घूमें तो ‘बुद्ध’ जाएं। लेकिन उसके लिए भी तो पहले इंसान बनना होगा न। वो बचा कहां है साहब न वो फुटपाथ पर है, न सड़कों पर, न गांवों में, न शहरों में....और संसद तो इंसान-प्रवेश वर्जित क्षेत्र है। वहां ‘थेथर’ पहुंचते हैं, उच्च स्तरीय ‘थेथरई’ का आनंद लेना हो तो वहां का रूख करिए।