Monday, November 24, 2014

पत्रकारिता


“कुतुबुद्दीन ऐबक को जानते हौ ?”
“हां क्यों नहीं, दरअसल कुतुबमिनार में एक ऐब है उसे ही उर्दू में कुतुबुद्दीन ऐबक कहते हैं।”
“खुदा खैर करे, अबे यही पढ़ते हो तुम ?”- “यही जानकारी रखकर पत्रकार बनोगे?”- जमील चचा आग बबूला होते हुए बिसंभर शर्मा पर चढ़ गए।
“चचा किस दौर की बात कर रहे हो”- गुटखा फाड़के मुंह में झाड़ते बिसंभर बोले
“अरे पढ़ना लिखना पहले हुआ करता था आज का युग सूचना क्रांति का युग है। इंटरनेट में गूगल गुरू बइठे हैं, टन्न से टाइप करो अउर दन्न से जानकारी मिलैगी फ्री फंड में। आपकी सलाह की तरह”
“बेटा बिसंभर तुम तो खरपत्तू साव के बगल में गर्मी में बर्फ का गोला और जाड़े में गर्म छोला की दुकान खोल लो, कसम से बता रहे हैं बहुत कमाई होगी पत्रकारिता-वत्रकारिता तुम्हारे बस की बात नहीं है।”- चाय की खाली गिलास मेज पर रखते जमील चाचा बोले।
जमील चाचा की बात बिसंभर को लग गई। बिसंभर ने चचा को हाथ से रुकने का इशारा किया, चाय की दुकान के बाहर जाकर दो-चार किलो गुटखा थूका और फिर हाजिर हुए। बोले- “चचा हम तो एक सेर पर यकीन करते हैं”-
“खुदही को करो इतना बुलंद कि खुदा खुदै आकर पूछे बताऔ राजा क्या है।”
चचा इस बार अपनी हंसी रोक नहीं पाए और ठठा कर हंसने लगे।
“बिसंभर शेर तुम्हारा है क्या बे?”
“क्या चचा आप भी हिंया तो मत खिचिंए कहां हम ‘क्रिमिनल पत्रकारिता’ के ख्वाब वाले लोग” मेज पर कुहनी टिकाते बिसंभर आगे बोले- “देखिए चचा हमको बनना है ‘क्रिमिनल रिपोर्टर’ ”
“क्रिमिनल रिपोर्टर कि क्राइम रिपोर्टर बे?” टोकते हुए चचा ने पूछा।
“हां हां वही।” – बिसंभर खिझियाते हुए बोले
“अब देखिए पत्रकारिता पेन घिसने और इतिहास रटनेवाली रही नहीं अब बस वर्तमान समझिए काम हो गया” – दो कप चाय का इशारा करते बिसंभर आगे बोलते गए।
“क्राइम रिपोर्टिंग में तो बस आपको एक माइक पकड़ना है चैनल का...और मौका-ए-वारदात पर दनदनाते हुए पहुंच जाना है।...और बस सवाल खड़े करने शुरू कर देने हैं।” – बिसंभर कंधा उचकाते बोले
“अबे सवाल न हुआ खटिया हो गई” – चचा तुनकते हुए बोले “पढ़ोगे लिखोगे नहीं तो सवाल क्या खाक पूछोगे?”
"आपकी सुई भी चचा घूम फिर कर वहीं अटक जाती है, पढ़ाई...हूं।“
“घटना कोई हो सवाल तो वही रहते हैं न?”
“जैसे?” – चचा ने सवाल पूछा
“जैसे कि पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है... वगैरह...वगैरह...।” –बिसंभर एक सांस में बोलते गए।
चाय आ गई थी, बिसंभर पर नज़रे गड़ाए जमील चाचा ने एक घूंट हलक के नीचे उतारा। बिसंभर को चाय से मतलब नहीं था वो बोल रहे थे-
“चचा देखिएगा दरोगा से लेके पुलिस का बड़ा से बड़ा अधिकारी हमारी जेब में होगा। आप कहेंगे एसपी से मिलना है...हम खलीता में हाथ डाल के निकालेंगे अउर बोलेंगे इ लौ...मिल लौ...”
बिसंभर को समझाना बेकार था। चचा ने फटाफट चाय खतम की और बिसंभर के कंधे का सहारा लेकर उठते हुए बोले- “गुरू हम निकलेंगे अब दफ्तर जाना है।” बिसंभर को लगा चचा कनविंस हो गए, बड़े अदब के साथ प्रणाम किया और बाहर तक उनके साथ निकले भी। सीढ़ियां उतर कर जमील चाचा थोड़ा रुके फिर बिसंभर की तरफ घूमते हुए बोले- “गुरू एक बात बताओ जिस दिन गूगल गुरू गड़बड़ा गए...या अटक गए तब क्या होगा अखबार न निकलेगा, टीवी पर न्यूज़ न चलेगी तब कौन बताएगा इतिहास?”
बिसंभर को बात न समझ आनी थी न आई। पत्रकारिता का कोर्स पूरा करते ही इंटर्नशिप का मौका भी आया। बिसंभर जुगाड़ू प्रवृत्ति के थे सो जुगाड़ ने काम किया और एक चैनल में हो गए इंटर्न। छह पॉकेट का पैंट और आठ पकेटिया हाफ जैकेट झाड़े बिसंभर यहां से वहां दौड़ते, ये बाइट वो पैकेज करते समय बीत रहा था। मन में तरंग उठती माइक, कैमरा...कभी-कभी खुदै एक्शन बोल के चालू हो जाते गलियारे में। जब कोई प्रोड्यूसर उन्हे बाइट या पैकेज कटवाने के लिए देता तो तन-बदन में आग लग जाती। कब्ज़नुमा मुंह बना लेते। मन ही मन बोलते “कमबख्त मेरी क्रिमिनल योग्यता को ये परख ही नहीं रहा।”
कभी-कभी तो मन इतना बहकता कि लगता खड़े हो जाएं न्यूज़ रूम में और चीखने लगें-
“पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है...
कुल मिलकार कसमसाते काम चल रहा था। दीन दुनिया से बेपरवाह, खबर देखते न खबर समझते, बस हिंया बैठते...कोई उठा देता तो हुंआ चले जाते....।
जुगाड़ यहां भी खोज ही रहे थे कि सही साट कोई मिले और क्राइम की दुनिया में वो कदम रख ही लें। इस बीच फुटकर काम निपटाते रहे। गूगल को वो बड़े काम की चीज़ मानते उनकी नज़र में अकेला वही था जो ज्ञानी था। बाकि उनकी नज़र में अज्ञानी और पुरानी मीडिया के कलम घिस्सू पत्रकार थे। हां एंकर उनकी नज़र में गूगल के बाद दूसरा ज्ञानी था। और उनके मुताबिक उत्तर आधुनिक मीडिया का प्राणी था। पर एक दिन एक घटना घटी-
हुआ ये कि एक प्रोड्यूसर ने उन्हे गांधी जी की तस्वीर निकालने को कहा। इस काम में तो गुरू माहिर थे। टप से गूगल खोला और टाइप कर दिया गांधी...। पर इस बार गूगल गुरू ने गच्चा दे दिया। गांधी टाइप करते ही जितने गांधी उपनाम वाले लोगों की फोटो गूगल गुरू की स्मृति में अंकित थी सभी स्क्रीन पर अवतरित हो गए और लगे मुस्कुराने। बिसंभर परेशान, बेड़ा गर्क इतने गांधी किसको निकालें। सोचा एक्कड़-बक्कड़ करके चुन लें...पर उसमें भी तो समय लगता पचासों फोटो थी।
समझ नहीं आ रहा था कि किसे मौका-ए-वारदात पर शिनाख्त के लिए बुलाएं। आखिरकार थक हारकर प्रोड्यूसर को ही आवाज़ दी। प्रोड्यूसर आए तो समस्या रखी- “सर, यहां तो कई गांधी दिख रहे हैं इसमें से गांधी जी कौन है?”
प्रोड्यूसर को लगा कि वो मज़ाक कर रह हैं। खीझते हुए बोला- “मज़ाक मत कर जल्दी ‘सेव’ कर पैकेज में लगाना है”
“अरे सर, मुझे सच में नहीं मालूम”
“तू गांधी को नहीं पहचानता”- इस बार प्रोड्यूसर का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
प्रोड्यूसर के लहज़े से खिन्न बिसंभर जी कंधा उचकाते बोले- “कोई ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति हर किसी को जानता हो”
प्रोड्यूसर महोदय हत्थे से उखड़ रहे थे, उन्होने एक तस्वीर को क्लिक किया और खट से एक तस्वीर स्क्रीन पर आई। इस तस्वीर में गांधी और नेहरू एक साथ बैठे थे। उन्होने बिसंभर से पूछा – “इस तस्वीर में कौन-कौन है?”
बिसंभर को ये सवाल थोड़ा आसान लगा जवाब दिया- “ये एक नेता हैं और उनके साथ कोई गांववाला बैठा है।”
प्रोड्यूसर साहब सर पीटते हुए भाग खड़े हुए। जब लौटे तो उनके साथ इनपुट संपादक तिवारी जी थे। कौन है, कहां है कैसा है...छोटे वाक्यों के साथ उनकी आमद हुई। जैसे ‘एलियन’ पकड़ में आ गया हो। बिसंभर हाथ छाती से बांधे, सीना फुलाए खड़े थे।
“क्यों बे तुम गांधी जी को नहीं जानते? ” - तिवारी जी ने आते ही सवाल दागा।
“एक होते तो जान लेता हियां खचिंया भर पड़े हैं। ” बिसंभर हास्यरस के पुट में बोले।
अब तक तिवारी जी बिसंभर गुरू का टेस्ट लेने पर आमादा हो चुके थे। पूछा- “ इ बताओ भारत का प्रधानमंत्री कौन है?”
“सरदार हैं कोई” – कॉन्फिडेंस से लबरेज बिसंभर बोले।
“कौन प्रकाश सिंह बादल?” – तिवारी जी ने पूछा।
"जी,...बा..द..ल...हां हां वहीं आसमानी रंग की पगड़ी बांधे जो रहते हैं” – बिसंभर बोले
न्यूज़ रूम में खुसुर-फुसुर शुरू हो चुकी थी। कुछ इंटर्न नेट खोलकर भारत के राष्ट्रपति से लेकर, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, मुख्य न्यायाधीश आदि आदि तक का रट्टा मारना शुरू कर चुके थे। पाया गया कि कुछ प्रोड्यूसर स्तर के लोग भी कनखियों से स्क्रीन टीप रहे थे।
जो गांधी को जानते थे वो असाधारण टाइप साधारण मुंह बनाते बोलते फिर रहे थे, बताइए गांधी जो को नहीं जानते, चले हैं पत्रकारिता करने। क्या हल्की जेनेरेशन आ गई है। कुछ तो गांधी जी के साथ आई दूसरी फोटो का उंचे सुर में नाम ले ले कर प्रशंसाभिलाषि हुए जा रहा थे। कुछ ने तो आपस में गांधी की आत्म कथा की समीक्षा और गांधीवाद पर गंभीर विमर्श तक शुरू कर दिया था।
लेकिन तिवारी जी भरे हुए थे। गोरा चेहरा तवे की तरह तमतमा रहा था उसपर से लाल रंग की टीशर्ट तवे को लहका रही थी। बिसंभर स्थितिप्रज्ञ थे। उनको अभी भी लग रहा था कि भइया गांधी क्या कहीं के डीएसपी हैं या एसपी हैं कि हमारा जानना ज़रूरी है।
और हैं तो हों, एक बार ‘क्रिमिनल रिपोर्टर’ बन गए तो वो रहेंगे तो खलीते में?
लेकिन तिवारी जी सामान्य ज्ञान परीक्षण से बाज आनेवाले नहीं थे। सवाल दागा- “वित्त मंत्री क्या होता है?”
“वृत्त मंत्री यानि सर्किल अफसर।” - इस बार बिना देर किए बिसंभर ने जवाब दिया था।
“रक्षामंत्री कौन है देश का?”- तिवारी जी खीझते हुए तेज़ आवाज़ में बोले।
“बजरंग बली”
“तुम मज़ाक कर रहे हो?” तिवारी जी ने चैतन्य बिसंभर जी की आंखों में आखें गड़ाते पूछा।
“मज़ाक?... मज़ाक तो आप कर रहे हैं। मेरा ‘एरिया ऑफ इंटरेस्ट क्राइम’ है और आपने मुझे ‘पॉलिटिक्स’ में उलझा दिया है।”
बिसंभर बोलते गए- "सर, क्राइम में सवाल का जवाब थोड़े ही देना होता है, वहां तो सवाल उठाना होता है।”
“पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है...
“एसी साहब जवाब दिजिए”
“डीजीपी साहब जवाब दिजिए”
बिसंभर नॉन स्टॉप बोलते गए। आखिरकार मन की मुराद पूरी हो गई थी। उन्हे अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल ही गया था। लोग सन्न रह गए न्यूज़ रूम में ‘पिन-ड्रॉप’ ‘साइलेंस’ हो गया। तिवारी जी की जनरल नॉलेज परीक्षण शिविर में सवालों की आमद अचानक रुक गई थी। वो भौचक थे...भौचक तिवारी जी की तंद्रा अचानक टूटी। उन्होने बिसंभर जी के कंधे पर हाथ रखा...दूसरे हाथ से उनके बैग को उठाया...और बाहर गेट तक ले आए...। बड़े शांत भाव से बिसंभर जी को समझाया-“भाई मेरे, भगवान के लिए पत्रकारिता को बख्श दें। पहला क्राइम आपने पत्रकारिता में हाथ आजमाने का फैसला लेकर ही कर दिया अब मामले को यही रफा-दफा करें, इसमें बने रहने का दूसरा बड़ा क्राइम न करें कृपा होगी। अलविदा।”...लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती, कालांतर में बिसंभर शर्मा कई-कई न्यूज़ चैनलों में जुगाड़ पद्धति और चापलूसी मंत्र के ज़रिए उच्च पदों तक पर शोभायमान हुए। लोग उनके बारे में बतियाते कि उन्हे ‘चापलूसी सिद्ध’ थी। गांधी को न जानने वाले बिसंभर के ऊपर गांधी बाबा की कृपा अनवरत बनी रही वो अक्सर उनकी जेब में ठुंसे पाए जाते। जैसे-जैसे समय बीतता गया शर्मा जी ‘दलाली संहिता’ के आचार्य होने के साथ आगे चलकर ‘विद्यावाचस्पति’ भी हुए।

खुलासे ही खुलासे


त्यौहार का मौसम है नया माल गिरा है। गद्दे ही गद्दे, चादरें ही चादरें, पर्दे ही पर्दे की तर्ज़ पर (दिल्ली वाले इस तरह की बाजारू टैग लाइन को ज्यादा समझते हैं) अब चल रहा है खुलासे ही खुलासे। धकाधक माल बिक रहा है। बुकिंग शुकिंग का चक्कर नहीं है आओ और पाओ वाला हिसाब है। केजरीवाल फैक्ट्री का माल है एक दम टकाटक। जो पसंद आए ले लो...खुर्शीदवाला माल ज्यादा बिका...बिक ही रहा था कि एक और ‘इक्जाई’ माल गिर गया वाड्रा का। भीड़ वहां भागी मोलभाव कुछ भी नहीं है फिक्स दाम। ‘सब धान बाइस पसेरी।‘ जो चाहो उठा लो। क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा...कैश दो थइला में ठूंसो और बढ़ लो। वाड्रा की डिमांड थी...इस बीच कटपीस आ गया...अशोक खेमका का...वो भी बिका है पर उतना नहीं। खेमका माल था ज़बरदस्त लेकिन पता नहीं क्यों नहीं बिका। अब गडकरी माल आया है। वाह क्या माल है आते ही छा गया। पर क्वालिटी वैसी नहीं है जैसी खुर्शीद और वाड्रा माल की थी। खुर्शीद वाला तो मलाई था। एकदम खालिस जर्रर से गिरनेवाला। कैप्टन कुक नमक की तरह।

जनता भाग रही है। भीड़ कभी इस दुकान तो कभी उस दुकान हबुआई हुई है। खुर्शीद जी दबंग सलमान हो गए बोले- ‘इतना हमारा प्रोडक्शन थोड़े ही है’। बेनीप्रसाद ने भी हामी भरी- ‘भईया और फैक्ट्रियों को भी देखो। कहां छोटी मोटी फैक्ट्री में पड़े हो।‘
ऑफ द रिकॉर्ड बातें हो रही हैं। कानून मंत्री कानूनी और अकानूनी तरीके से डीलर केजरीवाल को हड़का रहे हैं। कहते हैं माल हमारा बेच रहे हो ब्रांडिग तुम्हारी हो रही है। ये गलत है आओ फर्रुखाबाद और फिर लौटकर दिखाओ। न जाने क्यों ये डायलॉग कहीं और भी सुना सा जान पड़ता है। किसी धार्मिक ग्रंथ में अरे हां याद आया जब हनुमान जी उड़े थे लंका यात्रा के लिए तो रास्ते में सुरसा नाम की एक राक्षसी मिली थी। उसने कहा था मुंह में आओ और निकल कर दिखाओ निकल गए तो ठीक न निकले तो? तब क्या…? कुछ नहीं हो गया हैप्पी बड्डे।

इलेक्ट्रानिक मीडिया का काम सराहनीय भी है और कराहनीय भी। धकाधक न्यूज़ आ रही है। खुलासे ही खुलासे। सुबह-दोपहर खुलासा रात में राष्ट्र की अधोगति से चिंतिंत पत्रकार। ताबतोड़ चले आ रहे हैं। यही मौका है राष्ट्र के नाम संदेश हम भी दे दें फिर मौका मिले न मिले। बाल की खाल निकालने के लिए कई तरह के औजार हैं साथ में। कुछ एक तो परमानेंट एंकर को गिफ्ट भी कर चुके हैं। देखो हम ने आएं तो इससे निकालना ये वाला इस्तेमाल किया हुआ है बेहतरीन खाल निकालता है। हम थोड़ा बिजी रहेंगे उस वक्त। जैसे ही फ्री हुए तुम्हारे यहां गिर जाएंगे। तब तक इसका इस्तेमाल करना। एंकर मेकअप ज्यादा लेता है। पर बाल बिखरे रखता है। फील आना चाहिए राष्ट्रीय हड़कंप का। चर्चा बगैर खर्चा चल रही है। नेता आए हैं जिनकावाला माल गिरा है वो भी और वो भी जो फैक्ट्री को ब्लैकलिस्ट कराने के चक्कर में हैं। और केजरीवाल ब्रांड वाले भी हैं। खतो-किताबत के हिसाब-किताब के साथ। वरिष्ठ पत्रकार भी बुलाए गए हैं। पर वरिष्ठ पत्रकारों बोलने की इजाज़त नहीं है। वो तभी बोलेंगे जब नेता न पहुंचे हों। जब आपके हाथ से तर्क छूटने लगे। या हुंकारी भरवानी हो। इसमें थोड़ा बोलने की इजाज़त है ज्यादा नहीं...फुटेज मत खाइए प्लीज़। बस इतने से संतोष करिए की हम चार कॉलम की आपकी गच्च तस्वीर स्क्रीन पर साट दिए हैं पर्मानेंटली। और कुछ पुछुंगा तो हमारी ओर ही बैठिएगा।

महंगाई गुम हो गई। पेट्रोल का दाम घटा फिर बढ़नेवाला है। गडकरीवाला माल सैफ-करीना की शादी के एक दिन बाद गिरा है। एक दिन पहले तक बाज़ार में सैफ-करीना की शादी की चर्चा थी। एक राष्ट्रीय चैनल सैफ-करीना की शादी को खारिज करवाने पर तुला था एक विंडो में से ‘पंडी जी’ झांक रहे थे तो दूसरी तरफ से ‘मौलवी’। तीसरी खिड़की में बार-बार बीस सेकेंड का शॉट चकरिया रहा था। एक महिला था गाड़ी से उतरती थीं और अटक जातीं थीं। फिर वही...फिर वही। और मुल्ला-पंडित भी वही बतिया बार-बार कह रहे थे। वही फिर वही...।

एंकर परेशान एक घंटा गलथेथरई करनी है करे क्या। भला हो मेकअप का चेहरे का उड़ा रंग भी छुपा लेता है। रिपोर्ट चल रही है सैफ-करीना की शादी का मैन्यू चैनल बता रहा है। शाही कबाब, टिंडा कबाब, पिस्ता-बादाम की खीर...वगैरह वगैरह। थैंक्स टू गूगल गुरू। फोटो सारी मिल गईं व्यंजनों की। वैसे प्रोड्यूसर ने इसमें कुछ अपना भी आइटम डाला है। लाख कोशिश कर ली चैनल ने, मौलवी साहब गुर्राते रहे ‘हराम-हराम’ पंडी जी कहते रहे हैं- ‘राहु की महादशा है शनि की दृष्टि है शादी टूट जाएगी मत करो...।’ लेकिन कमबख्त सुने कोई तब तो। शादी हो गई। खैर चैनल ने तो अपना पत्रकार धर्म निभाया। टीआरपी के जानकार कृष्ण हैं कहते हैं कर्म करो फल की चिंता मत करो। टीआरपी न आए तो फिर जिसको धरना हो...धरो।

तारीख डकाते-डकाते केजरीवाल नया माल गिराने की तारीख 17 मुकर्रर कर पाए। नहीं...। सोलह को तो स्लॉट ही नहीं था। सब बेगानी शादी में अब्दुल्ला बने बैठे थे। अब आइए। दो-दो हाथ हो जाए। अच्छा ये बताइए माल अच्छा है न? बिकेगा तो? वैसे आजकल भ्रष्टाचारवाले माल की डिमांड है मार्केट में। बिकेगा खूब बिकेगा।

Monday, November 17, 2014

सत्य की खोज

वो सत्य की खोज से अभी लौटे हैं। करीब एक पखवाड़े बाद। उनके चेहरे पर सत्य का तेज है। जैसे अभी फेयर एंड लवली  मल के आए हों। ग्लो परमानेंट है। सत्य परमानेंट होता है टेंपोरेरी नहीं। सत्य कई तरह के होते हैं। अर्ध सत्य, पूर्ण सत्य, पाव भर सत्य, छंटाक भर सत्य आदि इत्यादि। उन्होने बताया सत्य सापेक्ष है। जो हो रहा है वो 'परपेचुएल' है। मैं उनकी बात काट नहीं सकता क्योंकि सत्य की खोज करने वाले की बात काटी नहीं जाती। ये एक तरह का रिस्क भी होता है कभी-कभी बात काटने पर सत्य की खोज करनेवाला या उसके अनुयायी आपको काट लेते हैं।
पर मैं शिद्दत से मानता हूं कि उन्होने सत्य की खोज की होगी। उन्होने पप्पू की चाय दुकान पर अपने उधार खाते को आगे बढ़ाते कुल जमा एक चाय का ऑर्डर देते बताया कि आखिरकार सत्य मिल गया। मैने पूछा कहां, वो तुनककर बोले गोदौलिया से लक्सा जाते दीना चाट भंडार के सामने वाले मंढउल (मेनहोल या गटर) में। अरे बकलोल सत्य ऐसे थोड़े ही मिल जाता है। उसकी कोई नियत जगह थोड़े ही होती है। उसके लिए लगातार चलना पड़ता है, तपस्या करनी पड़ती है। हिमालय की कंदराओं में मिलने के दावे तो होते हैं पर एक्यूरेट कोई नहीं बता सकता किस कंदरा में है। हर कंदरा में जाकर आजमाना पड़ता है। यहां नहीं मिला तो दूसरी में जाओ। दूसरी में नहीं तो तीसरी में। ऐसे तप करना पड़ता है तब जाकर मिलता है।
मुझे खुद पर लज्जा आई। सही है सत्य इतना आसानी से मिलता तो लोग घर परिवार छोड़ कर सत्य की खोज में क्यों निकलते। नज़दीक ही कहीं गड्ढा खोद निकाल लेते। दरअसल सत्य हर किसी को नहीं मिल सकता। कुछ लोग कहते हैं भूख, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, बच्चों की मौत, बदहाल अस्पताल, सड़ा सिस्टम ये भी तो सत्य है। अब मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आता है। कितना छोटा सोचते हैं वे। वो कभी उनके जैसे सत्य खोजने वाले नहीं हो सकते।
तो आखिरकार वो सत्य खोज लाए। मैने पूछा गुरूदेव खोजा कैसे, कहां रखा है दिखाइए।
उन्होने ने गहरी सांस ली। उनके चेहरे पर असीम शांति उभरी। आंखे बंद कर उन्होने ध्यान किया। ध्यान आंखे बंद करके ही किया जाता है। आंखे खोलकर ध्यान करने से दूसरे ओछे सत्य टकराते हैं। छंटाक भर वाले। वो आंखे बंद कर कुछ देर बैठे रहे। इससे एक बात और पता चली कि सत्य कभी खुली आंखों से नहीं दिखता। उसके लिए आंख बंद करनी पड़ती है। करीब 5-7 मिनट के मौन के बाद उन्होने आंखे खोलीं। सत्य सतत है, सत्य शाश्वत है, सत्य सापेक्ष है, सत्य सरल है। मन फिर दुविधा में हुआ मैने पूछा गुरू क्या 'छेकानुप्रास' (जब वर्णों की आवृत्ति एक से अधिक बार होती है तो वह छेकानुप्रास कहलाता है।) वो करीब-करीब गुर्राते हुए भकभकाए। सत्य जानो नहीं महसूस करो।
मैने पूछा- कैसे
वो बोले सत्य दरअसल वो नहीं जो दिखता है।
पर बच्चे की फीस जो जमा करनी है, नहीं तो नाम कट जाएगा, ये भी तो सत्य है- मैने अचकचाते पूछा
यही तो दिक्कत है, ये सत्य होकर भी सत्य नहीं ये पाव भर सत्य है- वो गंभीर होते उवाचे
मेरी आंखे चमकीं, मैने निवेदन किया अब आधा किलोइया और पूर्ण सत्य पर प्रकाश डालिए।
वो रहस्यमयी मुस्कान रखे बुदबुदाए- उंह जो सत्य जानने में ज्ञानियों को सदियां लग गईं वो सेकेंड में जानेगा
मैने न सुनने का अभिनय करते फिर सवाल दागा- प्रकाश डालिए गुरू
आधा सत्य ये है कि मैने पप्पू से एक चाय मंगाई है, पर उसका आधा सत्य ये है कि इस एक चाय में दो लोगों का हिस्सा लगेगा जो कि मेरे ज़ेहन में पहले से ही चल रहा है।
ओहो, मतलब एक सत्य वो जो दिखा और दूसरा आधा वो जो नहीं दिखा- मैने चमकते हुए कहा
बिल्कुल....
तो पूर्ण सत्य ?
पूर्ण सत्य ये कि ऐसा लगता है कि मैने चाय मंगाई तो पैसे मैं दूंगा, पर ऐसा नहीं है सत्य कुछ दूसरा है
क्या ?
ये बहुत बहुत गूढ़ है
वो तो है पर जानना चाहता हूं गुरुवर
तू नहीं समझ पाएगा, मृत्युलोक के प्राणी
आप समझाएंगे तो समझ जाउंगा प्रभू
तो सुन
सुनाइए...
सत्य संभाल पाएगा
आपके आशीर्वाद से..
कठिन है
होने दीजिए
देख डिगेगा तो नहीं
बिल्कुल नहीं
चूकेगा तो नहीं
सवाल नहीं..
तो सुन
सुनाइए
ये आधा किलोइया सत्य है कि एक चाय मैने मंगाई है, ये भी आधा ही सत्य है कि तुझे लगता है मैने मंगाई है तो मै ही पैसे चुकाउंगा।
तो पूर्ण सत्य क्या है प्रभु....
पूर्ण सत्य ये है कि पपुआ को मैने पहले ही कह रखा है कि जिस किसी के साथ बैठकर मैं चाय मंगाऊं चाय का पैसा उसके खाते में ही जोड़ा जाए। - ये कहते वो ठठा कर हंसे और हंसते गए। ये हंसी सत्य की थी। सत्य जीता था।
मैं निष्कर्ष पर पहुंचा, यकीनन सत्य को समझना कठिन है। जो दिखता है जो आप देख पाते हैं सत्य वो नहीं, जो नहीं दिख रहा सत्य शायद वो है।

कुछ दृश्य...

दृश्य 1.
बस खचाखच है। पसीना गमक रहा है। बस की फर्श पर मूंगफली के छिलकों की नर्म कालीन बिछी है। चचा अभी चढ़े हैं। अतर की खुशबू लिए उन्होने खुद को ठूंसा है। बुरक़े में बेगम लस्त है। "एही बस में चलियो???"- "हां तो आउर का?"... "दुसरकी बस दू घंटा बाद अइए...।"... "आगे बढ़ो-आगे बढ़ो कर" पान गुलाए दबंग टाइप फूहड़ कंडक्टर चिल्लाता है। बनारस से गाज़ीपुर की ये यात्रा दुर्गम है।
अबे क्योटो के ख्वाब पर जल्दी चिकोटी काटो। जो खिड़की के पास बइठा है वो शीशे से चिपक चुका है। जो ड्राइवर के पास आगे खड़ा है वो ड्राइवर के एक ब्रेक पर सामने का शीशा फोड़ जान न्यौछावर करने पर तुला है। सब चल रहे हैं। किसी ने कहा- "अरे बढाओ अब केतना पब्लिक भरोगे?" जवाब आया- "जब तक सांस लेने के लिए तुम्हारा पेट जगह लेता रहेगा।"
झुर्री यादौ अभी पीतल की परात लेकर चढ़े हैं। उनकी परात ने कई लोगों की गर्दन आजमाई है। जिन लोगों ने आपत्ति की उसको झुर्री ने चेता दिया है सपा सरकार अपना काम कर रही है सीमा में रहें। जो लोग क्रांतिकारी थे उनकी क्रांति दमघोंटू माहौल और सियासी तस्वीर में घुल गई है। बनारस टू गाज़ीपुर का सफ़र बॉबे टू गोवा वाला नहीं है...। बस निकलपड़ी है...हचक-हचक कर चल रही है। इधर बस लोगों को लचका रही है उधर टनटनाता बाजा गा रहा है "कमरिया करे लापालप..."
दृश्य 2.
घाट लकलक हैं। गंदगी यहां नहीं दिख रही। रंग बिरंगे झंडे दिख रहे हैं। पंडे त्रिपुंड लगाए बैठे हैं। गलचउर जारी है। पन्नालाल पान लपेट रहे हैं। भइयालाल खिखिया रहे हैं। रामदरस कान पर जनेउ चढ़ाए सर-सर सीढ़ी चढ़ रहे हैं। इसबार किसी भी शंका का निवारण करने के लिए घाट पर जगह नहीं, 'बम पुलिस' (सुलभ शौचालय) ही अंतिम सहारा है। पतालू लुंगी-लंगोट त्याग चुके हैं। स्याह शरीर अब 'कपरी' (कैप्री) के हवाले है। पतालू घाट के गाइड कम नाविक कम फोटोग्राफर हैं। अंग्रेजी जापानी और जर्मन आपको सिद्ध है। मल्टीटैलेंट का ज़माना है। लुंगी क्यों त्यागी? पूछने पर मचल के कहते हैं कोटो (क्योटो) में के लुंगी पहिनला ? (क्योटो में कौन लुंगी पहनता है)...एक समय था जब पतालू से किसी अंग्रेज ने घाट पर जमा गंदे पानी की ओर इशारा करते पूछा था व्हाट इज़ दिस? तो पतालु ने जवाब दिया था- "दिस इज एनदर गंगा छलक के कम फ्राम दैट साइड"। अब न गंदगी है न छलकी गंगा...हां गंगा में सारी गंदगी अभी भी है। पतालू के बेटे पुदीना से पूछा - क्या बेटा काशी चाहिए या क्वेटो...? पुदीना ने इतराके कहा - क्वेटो!!!!!

"मेरा वाला क्रीम!"


शायद आपको याद हो टीवी पर पेंट का एक विज्ञापन आया करता था, जिसमें एक महिला अपने घर के लिए अपनी पसंद के क्रीम कलर को खोजती रहती थी और जैसे ही उसके पसंद का रंग दिखता था वो चिल्लाती थी "मेरा वाला क्रीम।" आजकल "ये मेरा वाला क्रीम विचारधारा" फेसबुक की आभासी गली और मुहल्लों में घूम रही है। अलग अलग मुहल्ले के लोग अलग अलग जगहों पर मिलते हैं, भिड़ते हैं, चिढ़ते हैं और धारा बस एक होती है "मेरा वाला क्रीम"
दक्षिणी भक्त "साहेबवाली" क्रीम को लेकर चकमक है। बाएंहत्था कॉमरेड मार्क्स-लेनिन क्रीम को पोत देने को आमादा हैं। कांग्रेसी गांधी क्रीम को लेकर तैयार हैं। और एक और हैं नए आपिए...जिनके पास केजरी क्रीम है। इस "मेरा वाला क्रीम" विचारधारा ने आलोचना के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी नहीं है। मजाल क्या है आप बोलिए। साहेब को बोलेंगे विकासविरोधी कहते आपको भकोट (नोच लेने का और बेहतरीन तरीका, थोड़ा एडवांस वर्जन) लिया जाएगा। लेटेस्ट गांधी वर्जन पर सवाल खड़े करेंगे तो सांप्रदायिकता के गड्ढे में ढकेल कर मिट्टी से पाट देने की भरसक कोशिश होगी। वाममार्गी तांत्रिकों से पूछेंगे बिसलरी में पानी क्यों पीते हो, ब्रांडेड कपड़े क्यों पहनते हो, अंग्रेजी में क्यों लबलबाते हो तो...चमक कर खाल में भूसा भर, टांग देने को दौड़ पड़ेंगे। और आपी प्रजाति की तो पूछिए मत क्रांति का तो नहीं मालूम पर भ्रांति यहीं से आएगी इसमें कहीं तो राय नहीं। जनपथ के पचहत्तर रूपए का स्वेटर, 15 रूपए का मफलर लीजिए और बन जाइए आपी। थोड़ी भाषा बदलनी होगी, मसलन, "वो चोर है, फलाना हलकट है, ढेमाका बड़ा भ्रष्टाचारी है, उसका तो पूछो मत एक नंबर का सांप्रदायिक हैं, लुच्चा है " वगैरह वगैरह। हर तरह के सर्टिफिकेट केजरी जी तुरंत साइन कर बांट देते हैं गोया भंडारे की पर्ची बांट रहे हों।
जब आप एक रंग चढ़ाने का सोचते हैं तो वहीं आप कम्यूनल हो जाते हैं। मेरा वाला क्रीम बस और कोई रंग नहीं। ये तो चलेगा नहीं भाई। ये दरअसल "मेरा वाला क्रीम विचारधारा" है। आप हमारे जैसे नहीं, हमारा ही बोलिए। वही रंग लगाइए और सारे घर को बदल डालिए। एक अनुज मित्र ने बड़ा मासूम सा सवाल किया जब सबको गाली दें तो चुने किसको? अव्वल तो ये कि, गाली नेताओं के लिए और उनके कार्यकर्ताओं और झंडाबरदारों के लिए रहने दीजिए। आलोचना की गुंजाइश रखिए। चुनना इनमें से ही है तो चुनिए। जो आपको बेहतर लगे। काम न करे तो अगली दफा मत चुनिए। ऐसा तो है नहीं कि बेगारी लिखवा ली आपने परिवार के लिए। क्रॉप रोटेशन ज़रूरी है भाई तभी लोकतंत्र की ज़मीन फर्टाइल रहेगी।

बाज़ार का "मारीच"


मरीचिका शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई ये मैं नहीं जानता। मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं। पर जब सोचता हूं तो मैं इसे मारीच के इर्द-गिर्द पाता हूं। मारीच रावण के अंकल (मामा) हुआ करते थे। अय्यार (जो भेस बदलने में माहिर होता है, ध्यान दीजिए भेस!!! भैंस नहीं...) थे। मारीच ही थे जिन्होने स्वर्ण मृग का भेस धरकर मां सीता को मोहित किया था। मारीच महाभियानों में ऐसे ही अपनी भूमिका निभाते हैं। भेस बदलकर आते हैं ईश्वर की लीलाओं के लिए पथ तैयार करते हैं और मारे जाते हैं। मारीच मायावी होते हैं, कुटिल भी। कुटिल चाणक्य भी थे पर उनके पास मृग बनने की सिद्धि नहीं थी। सो वो ईश्वर की लीलाओं के लिए रास्ता नहीं बना सके। वो बेचारे एक दलित बच्चे को राजा बनाने औऱ उसे इतिहास में दर्ज़ कराने तक ही योगदान दे पाए।
कभी लगता है मारीच के साथ इतिहासकारों ने कितना बड़ा अन्याय किया। इतना बड़ा योगदान कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। ज़रा फर्ज़ करिए मारीच ने रावण के आदेश को ही मानने से इंकार कर दिया होता- कि देखो रावण भांजे हो ...भांजे की तरह रहो । या कि ऐन वक्त पर "मृग कन्वर्ज़न मंत्र" भूल गया होता। भई मैनुअल गड़बड़ियां तो कभी भी हो सकती हैं। खैर...तो मारीच चूका नहीं, कर्तव्य पर उसने खुद को कसा। लेकिन पुराणपंथियों ने मारीच को ईश्वर को दिए महान लीला के अवसर को साजिशन खत्म कर दिया।
अब न जाने क्यों लगता है, मारीच फिर से अवतरित हो चुका है। बाज़ार के तौर पर वो मरीचिका गढ़ रहा है। इस बार किसी ईश्वर की लीला की भूमिका तैयार करने के लिए नहीं बल्कि पुरातन इतिहासकारों के द्वारा उसके साथ की गई नाइंसाफी का बदला इंसानों से लेने के लिए।

Sunday, November 16, 2014

सफाई की 'अलख'


बलेसर सुरियाए चले आए हैं। सफाई अभियान की तैयारी है। त्रिभुवन बाबू झक्क सफेद कुर्ता अउर बंडी सिलवाए हैं। उनके नाती एकेश्वर एक सफेद टीशर्ट जिसपर "लेट्स डू इट" लिखा है पहिन के अंग्रेजी में दांत निपोर रहे हैं। बिंदेश्वरी पाणे थोड़ी देर से आए हैं। बाबू साहब ने पूछा - "का बिंदेश्वरी देर कइसे भई....?" अरे सुबह मैदान फिरने गया था तो लोटा उहैं छूट गया उसे ही खोजने में देरी हो गई।- बिंदेश्वरी पाणे ने जवाब दिया...।
कुल मिलाकर चहल पहल बढ़ गई है। सफाई का स्थान भी निश्चित कर लिया गया है। बरुना घाट की सफाई होगी। ल लोटा घाट कि काहें...गांव की क्यों नहीं?..."अरे नहीं गांव में सफाई शुरु की तो धूरै-धूर हो जाएगा। पक्का जमीन थोड़ै है।" - किसी ने जवाब दिया। - "संझा हो जाएगी पर गांव सफा नहीं होगा।"
अरे ए हो...अ मीडिया प्रेस-कैमरा उसको बोलाया कि नहीं। अरे हां एकी बोल दिए हैं भाई। एकी कौन? अरे बकलोल, एकेश्वर बंबई में जाकर एकी हो गए हैं। अचानक सनसनी फैलती है। बलेसर को त्रिभुवन बाबू ने बुलाया है। झाड़ू नहीं दिख रही। अरे झाड़ू कहां है बलेसर? बलेसर ने कहा गरीब गुप्ता को बोला है। गरीब गुप्ता की दुकान बंद है। ले लोटा...। हो गई गड़बड़। गरीब गुप्ता कल रात ही अपनी सुसराल साले की शादी में निकल लिए। अब झाड़ू के बिना राधा कइसे नाचेगी?
त्रिभुवन बाबू तांडव कर रहे हैं- " बलेसरा तुमसे कोई काम नहीं हो सकता।"
बलेसर सुन्न पड़ गए हैं...गांव में सन्नाटे सी फैलती सनसनी छा गई है। मीडिया अब कि तब पहुंचनेवाला है। सफाई होगी कैसे? झाड़ू संकट बड़ा है। किसी ने कहा घर की झाड़ू निकाल लो...। महिलाएं लामबंद हो गईं- "खबरदार! झाड़ू खराब हो जाएगी।"
बिंदेश्वरी पाणे ने संकटग्रस्त माहौल में आइडिया फेंका है- " बाबू साहब एक काहे न अलख भर जगा दी जाए?"
अलख भर माने?
माने ये कि सांकेतिक सफाई
ये क्या है भाई...?
अरे वो ये कि कुछ पत्ता-पत्ती घाट पर डाल दी जाए और फिर उसको हाथों से चुन-चुन के कचरा के डब्बा में फेंक दिया जाए...।
वो मारा! क्या आइडिया है।
पत्ता-पत्ती बटोरो रे एकेश्वरा...।
बाबू साहब के नाती एकेश्वर युवा ब्रिगेड के साथ पत्ता खोजने में लग चुके हैं।
चिंघाड़ के कहते हैं...." हे डूड लेट्स बटोरो पत्ता..." खलीहर युवाओं की टोली एकेश्वर के साथ हो लेती है।
सफाई अभियान की "अलख" जग गई है। दूर पगडंडी पर मीडिया की गाड़ियां धूल उड़ाते आगे बढ़ रही हैं। बाबू त्रिभुवन सिंह सदरी झाड़ रहे हैं, घर से शीशा मंगवाया है। पंडित जी मुंह में गुलाए पान की पीक ज़मीन पर फेंक, सुबह निवृत्त करवाने वाले लोटे से कुल्ला कर रहे हैं।