Saturday, June 27, 2015

हां, बिसंभर ने 'एसपी' को देखा है...



तो ये तय हो गया कि सुरेंद्र प्रताप सिंह जी की पुण्यतिथि पर मूर्धन्य पत्रकार इकट्ठा होंगे और उन्हे श्रद्धांजलि दी जाएगी। एक एडिटर की छत को एसपी की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम के लिए चुना गया। ग़म हल्का करने के सारे ज़रूरी बंदोबस्त करने की कमान भी एक चापलूस पत्रकार को सौंपी गई। उसने खिखियाते दांत निपोरते कहा सर आप निश्चिंत रहें सब हो जाएगा। एक वरिष्ठ ने टोका- ज़रा देख लेना गर्मी बहुत हैस्मार्ट पत्रकार ने कहा – सर पूरा ठंडा किया जाएगा। वो अपने कमर से झुकते हाथ छाती के बांयी तरफ रखते महाराजा स्टाइल में बोला। उसके दांत गुटखे की जमी हुई काई से रंगे थे। ये एडिटर महोदय का सबसे विश्वासपात्र पत्रकार था।

बिसंभर पाणे की नींद अचानक रात में 2 बजे खुली। सामने एसपी खड़े थे। बिसंभर भकभका कर उठ बैठे। हांय...ए...ए...एसपी जी....??? एसपी कुछ नहीं बोले। बिसंभर बुदबुदाए आप कौन....? मैं एसपी ही हूं बिसंभर। एसपी की आत्मा? बिसंभर के पेट में मरोड़ सी हुई...गुदगुदी...और फिर दिल ज़ोर से धड़कने लगा। वो एक झटके में उठ बैठे। स स सर आप? म म मेरा मतलब आपकी आत्मा  ?
हां क्यों मेरी आत्मा नहीं हो सकती?”

न...न ऐसी बात नहीं है सर...अ अ आप की ही आत्मा हो सकती है। बिसंभर थोड़ा नार्मल होते बोले- आजकल पत्रकारों की आत्मा इंडेजर्ड स्पीशीज़ की कैटेगरी में है।

मतलब ? इंडेजर्ड स्पीशीज़ क्यों?” – एसपी ने पूछा

सर, सुना है आत्माएं सब जानती हैं...फिर आपसे क्या छुपा होगा...आप भी तो सब जानते होंगे ?”- बिसंभर जो अब तक थोड़ा सामान्य हो चुके थे कंधे उचकाते और सिर नीचे करते बोले।

हां...बिसंभर, जैसे में तुम्हारा नाम जानता हूं। मैं जानता हूं कि तुम परेशान हो...मैं जानता हूं कि तुम्हारे मंतव्य गहरे हैं। पर मेरी पत्रकार की आत्मा वजहें जानना चाहती है- एसपी ने बिसंभर के बराबर बैठते कहा।

पर सर...आपको मेरे पास ये जानने के लिए आने की ज़रूरत क्यों पड़ी। मैं दो कौड़ी का कॉपी पत्रकार। किसी एडिटर के पास जाते। वो आप उनके साथ सार्थक विमर्श कर सकते थे गंभीर विषय के साथ  पत्रकारिता की दशा और दिशा टाइप वज़नदार टॉपिक पर। थोड़ा अपमार्केट आपको चुनना था, टीआरपी गिविंग मटेरियल- बिसंभर दर्द के साथ हंसी अधरों पर सटाए कंधे शिथिल किए बोलते गए एक सांस में...इस बीच उनकी नज़र एसपी से नहीं टकराई वो ज़मीन देख रही थी।

हां....कोशिश की थी मैंने- एसपी ने गहरी सांसे छोड़ी और बोले- “…पर मैने उनके चारों तरफ एक कांच का कवच पाया बिसंभर। मैंने उसे तोड़ने की उसमें घुसने की कोशिश की पर नाकाम रहा। फिर भी किसी तरह मैं घुसा तो लगा वहां ऑक्सीजन नहीं है...गहरा निर्वात...दम घुटने लगा...और इससे पहले कि मेरी आत्मा दम तोड़ दे मैं निकल आया। ये कांच क्या था बिसंभर मैं समझ नहीं पाया। - एसपी के चेहरे पर वही लकीरें खिंच गईं थीं जैसे उपहार सिनेमा हॉल के हादसे की खबर बताते हुए उनके चेहरे पर उभरीं थीं।

बिसंभर मौन एसपी को सुन रहे थे। हाथ बांधे पलंग से टिके। एसपी के बोलने के बाद सन्नाटे के शून्य ने कुछ सेकेंड्स के लिए कमरे को भरा।

एसपी माफ कीजिए पर आपको नहीं आना चाहिए थ। - बिसंभर ने शून्य को तोड़ा

क्यों?”

क्योंकि वैक्यूम बड़ा है। और इस वैक्यूम में संवाद होकर भी नहीं होते एसपी। मीडिया अंदरूनी संवादों के इनकंप्लीट मेटामॉर्फोसिस से जूझ रहा है। इसका डीएनए बदल चुका है।

पर मेरे दौर के लोग? जिनके कंधों पर ज़िम्मेदारी थी? वो तो होंगे न....?” – एसपी की छटपटाहट उनकी आंखों में उतर चुकी थी
वो? वही तो हैं कई शीशों की दीवार के पार....वो एलीट हैं। वो अभिजात्य हैं एसपी- बिसंभर बोले

ख़बरें...? क्या खबरें उन्हे नहीं झंझोड़तीं...वो कांच के पार आने को नहीं छटपटाते?” - एसपी की हथेलियां अब आपसे में उलझने लगी थीं...उनका चेहरा और भौंहे खिंच रही थीं।

हां क्यों नहीं। खबरें हैं...दिल्ली खबर है, मुंबई खबर है, लखनऊ और पटना खबर है, लालू-नीतीश खबर हैं, वो बड़ी खबरों को समझाते हैं, छोटी खबरों में उलझना स्टेटस मैच नहीं करता।– बिसंभर अब बेधड़क बोलने की मुद्रा में थे।

व्हाट द हेल? व्हेयर इज़ द डैम कॉमन मैन?” - एसपी चीखे उन्होने मुक्के को पलंग पर तेज़ी से दे मारा

बिसंभर चौंक कर उठ बैठे। पसीने से तर-बतर। कहीं कोई नहीं। आवाज़ अब भी कानों में गूंज रही थी। सांसें एक्सप्रेस की रफ्तार पकड़ चुकी थीं। ये सारे सिंपटम ज़िंदगी के होने के थे। ज़िंदगी के होने और ज़िंदा होने का फर्क़ है। एसपी कांच की दीवारों के भीतर जाने से घुट रहे थे और यहां लंबी फेहरिस्त है जो दीवारों के उस पार न जाने की वजह से घुटते हैं। कमाल के खांचे हैं। इन्ही खांचों के एक से लोग आज इकट्ठा होंगे। आज कार्यक्रम है, एसपी की पुण्यतिथि पर उन्हे श्रद्धांजलि देने का।