Monday, November 2, 2015

बनरसिया कुल बरउरायल हउवन


“बनरसिया कुल बरउरायल हउवन। बउरहट एही से समझा कि ”हर हर महादेव अब हर हर मोदी हो गयल।”….. ” नहीं भइया अइसा नहीं है, बनारसी चढ़ा के उतारता है। नहीं उतारता तो बस महादेव को। हवा में मत रहिए जमीन सूंघीए और राजनीति पकड़िेए जब तक आप पकड़बा बनारसी निकल जाई अब हिलावत रहा घंटा…। इ हौ रजा बनारस। बाबा की परसादी घोंट कर विपत पाणे ने ज्ञान फेंका।
टीवी पर बहस चल रही है। हरियर कुर्ता में तोता मतिन बीजेपी नेता अशोक सिंह ने पादा- “अरे हवा बहत हौ मोदी…मोदी के सामने के कूदी…?” तभी समाजवादी मनोज यादव भोकरते हुए भइयालाल की दुकान में दाखिल हुए- “न दायम न बायम देखो, चरित्तर एक मुलायम देखो।”
बनारस अइसहीं चलता है। चलता रहा है और रहेगा। बड़े बड़े बोकरादी देने वाले दिल्ली लखनऊ न जाने कहां-कहां चले गए। पर बनारस छूटता है कभी? न छूटेगा। हमें लंठ कहिए, बकलोल कहिए, उजड्ड कहिए, आपकी मर्जी, हम तो ऐसे ही हैं। ऐसे ही रहेंगे। राजा बस एक है राजा बनारस। देव बस एक है महादेव। धर्म ? होंगे कई। दंगों में होते भी हैं कई। पर हमारा धर्म बनारस है। मेरी चाय खतम हो गई थी। अशोक पाणे बीजेपी की हरियरी समझा रहे थे। अब तक चुप बैठे कांता प्रसाद जो पेशे से अध्यापक हैं। जो अभी थोड़ी देर पहले बाबा की परसादी घोंट कर आए हैं, गूढ़ ज्ञान देते हैं।
“दम नहीं है न मोदी में, वापस जइहैं गोदी में”
मनोज ने लपका- “का बात कहला चच्चा। अरे का असोक चच्चा अब बोला काहें बुता (बुझ जाना) गइला।”
“अबे ए मनोज तुम हों लौंडे। मुलायम के सहारे दिल्ली की बैतरणी पार करोगे? अरे ऐतनै दम रहल त काहें नाहीं कूद गईनअ अहिर राम काशी के अखाड़े में? किनारे-किनारे काहें माटी पोतत हउवन।” -अशोक पाणे चिहुंक के बिदके थे कल लवंडा लपट रहा था।
बाभन एही तो किए जिंदगी भर जरे, जराए, आग लगाए। खिखयाते हुए मनोज ने अशोक पाणे को पिनकाया।
“अबे मनोज बच्चा, हम ओ जमाना भी देखे हैं जब नारा लगा था ठकुरे क बुद्धि अहिरे के बल, झंडू हो गयल जनता दल। तुम्हारी पैदाइस भी नहीं रही…अ रही भी होगी तो कहीं हग के पानी के छू रहे होगे।”
“अरे ए भइयालाल भइया। पाणे चा के चाय पियावा एकदम कड़क। सरापे (श्राप देने )की तैयारी किए हैं। बाभन सराप देई त कहां जाई ई अहिर?”- मनोज ने चुटकी ली।
“अबे मूढ़ बुद्धि, बच्चे को बाप सरापता कहीं। अरे कहीं गलत रास्ते जा रहा हो तो हुरपेट के घर ले आता है। वही कर रहे हैं हम।” – अशोक पाण ने उवाचा और उवाचते गए-
“और वइसे भी इस बार बालक, सपा सफा है, क्यों कांता?”
“कहो असोक कब राजनीति कर रहे हो तुम?”
“यही करीब 30 साल से।”
“तुम गोदौलिया चौराहे पर बिइठे उ सांड़ हो, जिसे लगता है कि उ बइठा है, तो सब बइठे हैं। गोदौलिया से लगायत सिगरा अउर लहुराबीर जाम पड़ा है…पर सांड़ ससुर के…से।” – भंग की तरंग में उतरती आंखों के साथ कांता प्रसाद बोले
“मतलब ?”
“अरे एनके मतलब समझावा च्चा।” मनोज ने कांता को खोदा
“मतलब ये कि तुम हाफ पैंटिए हवा बांधने में माहिर होते हो। कंग्रेसिया सब गिरहकटी में। रही बात मोलायम की। इ त ससुर इस बार कउड़ी के दू हो रहे हैं लिख लो। सैफई में रंगीनी ने इनको मुजफ्फरनगर में नंगा कर दिया। जाएं जरा देवबंद वोट मांगने, छील दी जाएगी।”
“वही तो हम कह रहे हैं।” – अशोक पाणे ने टोका
“देखो पाणे टोकों नहीं।”- कांता प्रसाद बिदकते हुए सुरूर में उतरते बोले।
“अरविंद केजरीवाल को हल्के में मत लो। मौके मिलेगा रेल देगा। अ मौका मिल रहा है अगर कांग्रेस, अगर सपा, अगर बसपा ने अरबिंदवा को सपोर्ट दे दिया तो तुम्हारे मोदी जी दक्खिन लगे जाएंगे। ”
“अ चच्चा अंसरियो तो है”- मनोज ने हाथ बेंच पर टिकाते कहा
“न न…मोख्तार न जीत पइहन। करेंगे क्या ये कौम के लिए। अ कर क्या सकते हैं। वसूली? जब भदोही का कालीन उद्योग बंद हो रहा था तब कहां थे मोख्तार? मउ में बनारसी साड़ी, बनारस के जोलाहा भूखे मरने की नौबत तक पहुंच गए। अब मजहबी अफीम नहीं चलेगा गुरू। रोटी दो, सुरक्षा दो, विकास दो अउर वोट लो यही नारा है बस।”
“तो ? मोदी भी तो यही कह रहे हैं।” – अशोक पाणे फिर कूदे
“ए पंडित देखा अइसन हौ कि तू आज घोंटला कि नाहीं?” – कांता प्रसाद ने पूछा
“नाहीं गुरू आज परसादी छूट गयल घरे जाब तो घोटब”- अशोक पाणे दांत निपोरते बोले
“त घोंटा। फिर देखा। देखल चहबा त देखाई। कि दरअसल राहुल गंधिया, मुलायम सिंह हौ…मुलायम, मुख्तार हौ…अ मोदी मुलायम…। इ राजनीति हौ गुरू। जे आडवाणी के नाहीं सटे देहलस, जौने राहुल के चुनाव में हरिजन याद आयल खाना खाए बदे। जौन मुलायम सैफई में नंगई में डूबल रहलन…उ हम लोगों के लिए कुछ करेंगे? एह राजनीति में कुछ बचल हौ का। बूटी साधा मस्त रहा।”
“भइया लाल ने इशारा किया दुकान बढ़ावे के हव अब। अशोक पाणे ने कांता के कंधे पर हाथ रखा बोले चलो कांता। सपा नेता मनोज यादव अब तक बेंच पर बैठा था दोनों गालों पर हाथ रखे। अचानक उठा दौड़ते हुए अशोक और कांता प्रसाद के पास पहुंचा। अरे चच्चा…चला घरे छोड़े देईं।”
“अरे तू कहां जइबे हमहन चल जाइब”
“अरे गाड़ी हौ चार चक्का चला न”
“ए चच्चा आशीर्बाद बड़ी चीज है…बाकि त सब बिलाने के लिए है”
“वाह!”
यही है बनारस। यहां राजनीति और रिश्ते का घालमेल नहीं है। कहा न आपसे बनारसी चढ़ा के उतार देता है। इसलिए राजनीतिक ठगों सावधान। और रही बात दिल्ली में बैठे विद्वानों की तो काशी में संभलकर। यहां ज्ञानी हाथ में बारह हाथ का सोटा लिए चलते हैं। खाने को तैयार हों तो उलझे। यहां का नाऊ वाशिंगट डीसी का इतिहास समझा सकता है। पंडा बराक ओबामा के खानदान के पिंडदान का पूरा लेखा जोखा बता सकता है।
बनारस में न जाने कितने विनोद दुआ, पुण्य प्रसून, रवीश कुमार, प्रभु चावला और अंग्रेजी के अर्णब गोस्वामी, प्रणब रॉय आकर बिला गए। यहां ज्ञानी छाती पर चढ़कर अपना ज्ञान साट देते हैं। ये है बनारस। हल्के में मत लीजिएगा।

Saturday, June 27, 2015

हां, बिसंभर ने 'एसपी' को देखा है...



तो ये तय हो गया कि सुरेंद्र प्रताप सिंह जी की पुण्यतिथि पर मूर्धन्य पत्रकार इकट्ठा होंगे और उन्हे श्रद्धांजलि दी जाएगी। एक एडिटर की छत को एसपी की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम के लिए चुना गया। ग़म हल्का करने के सारे ज़रूरी बंदोबस्त करने की कमान भी एक चापलूस पत्रकार को सौंपी गई। उसने खिखियाते दांत निपोरते कहा सर आप निश्चिंत रहें सब हो जाएगा। एक वरिष्ठ ने टोका- ज़रा देख लेना गर्मी बहुत हैस्मार्ट पत्रकार ने कहा – सर पूरा ठंडा किया जाएगा। वो अपने कमर से झुकते हाथ छाती के बांयी तरफ रखते महाराजा स्टाइल में बोला। उसके दांत गुटखे की जमी हुई काई से रंगे थे। ये एडिटर महोदय का सबसे विश्वासपात्र पत्रकार था।

बिसंभर पाणे की नींद अचानक रात में 2 बजे खुली। सामने एसपी खड़े थे। बिसंभर भकभका कर उठ बैठे। हांय...ए...ए...एसपी जी....??? एसपी कुछ नहीं बोले। बिसंभर बुदबुदाए आप कौन....? मैं एसपी ही हूं बिसंभर। एसपी की आत्मा? बिसंभर के पेट में मरोड़ सी हुई...गुदगुदी...और फिर दिल ज़ोर से धड़कने लगा। वो एक झटके में उठ बैठे। स स सर आप? म म मेरा मतलब आपकी आत्मा  ?
हां क्यों मेरी आत्मा नहीं हो सकती?”

न...न ऐसी बात नहीं है सर...अ अ आप की ही आत्मा हो सकती है। बिसंभर थोड़ा नार्मल होते बोले- आजकल पत्रकारों की आत्मा इंडेजर्ड स्पीशीज़ की कैटेगरी में है।

मतलब ? इंडेजर्ड स्पीशीज़ क्यों?” – एसपी ने पूछा

सर, सुना है आत्माएं सब जानती हैं...फिर आपसे क्या छुपा होगा...आप भी तो सब जानते होंगे ?”- बिसंभर जो अब तक थोड़ा सामान्य हो चुके थे कंधे उचकाते और सिर नीचे करते बोले।

हां...बिसंभर, जैसे में तुम्हारा नाम जानता हूं। मैं जानता हूं कि तुम परेशान हो...मैं जानता हूं कि तुम्हारे मंतव्य गहरे हैं। पर मेरी पत्रकार की आत्मा वजहें जानना चाहती है- एसपी ने बिसंभर के बराबर बैठते कहा।

पर सर...आपको मेरे पास ये जानने के लिए आने की ज़रूरत क्यों पड़ी। मैं दो कौड़ी का कॉपी पत्रकार। किसी एडिटर के पास जाते। वो आप उनके साथ सार्थक विमर्श कर सकते थे गंभीर विषय के साथ  पत्रकारिता की दशा और दिशा टाइप वज़नदार टॉपिक पर। थोड़ा अपमार्केट आपको चुनना था, टीआरपी गिविंग मटेरियल- बिसंभर दर्द के साथ हंसी अधरों पर सटाए कंधे शिथिल किए बोलते गए एक सांस में...इस बीच उनकी नज़र एसपी से नहीं टकराई वो ज़मीन देख रही थी।

हां....कोशिश की थी मैंने- एसपी ने गहरी सांसे छोड़ी और बोले- “…पर मैने उनके चारों तरफ एक कांच का कवच पाया बिसंभर। मैंने उसे तोड़ने की उसमें घुसने की कोशिश की पर नाकाम रहा। फिर भी किसी तरह मैं घुसा तो लगा वहां ऑक्सीजन नहीं है...गहरा निर्वात...दम घुटने लगा...और इससे पहले कि मेरी आत्मा दम तोड़ दे मैं निकल आया। ये कांच क्या था बिसंभर मैं समझ नहीं पाया। - एसपी के चेहरे पर वही लकीरें खिंच गईं थीं जैसे उपहार सिनेमा हॉल के हादसे की खबर बताते हुए उनके चेहरे पर उभरीं थीं।

बिसंभर मौन एसपी को सुन रहे थे। हाथ बांधे पलंग से टिके। एसपी के बोलने के बाद सन्नाटे के शून्य ने कुछ सेकेंड्स के लिए कमरे को भरा।

एसपी माफ कीजिए पर आपको नहीं आना चाहिए थ। - बिसंभर ने शून्य को तोड़ा

क्यों?”

क्योंकि वैक्यूम बड़ा है। और इस वैक्यूम में संवाद होकर भी नहीं होते एसपी। मीडिया अंदरूनी संवादों के इनकंप्लीट मेटामॉर्फोसिस से जूझ रहा है। इसका डीएनए बदल चुका है।

पर मेरे दौर के लोग? जिनके कंधों पर ज़िम्मेदारी थी? वो तो होंगे न....?” – एसपी की छटपटाहट उनकी आंखों में उतर चुकी थी
वो? वही तो हैं कई शीशों की दीवार के पार....वो एलीट हैं। वो अभिजात्य हैं एसपी- बिसंभर बोले

ख़बरें...? क्या खबरें उन्हे नहीं झंझोड़तीं...वो कांच के पार आने को नहीं छटपटाते?” - एसपी की हथेलियां अब आपसे में उलझने लगी थीं...उनका चेहरा और भौंहे खिंच रही थीं।

हां क्यों नहीं। खबरें हैं...दिल्ली खबर है, मुंबई खबर है, लखनऊ और पटना खबर है, लालू-नीतीश खबर हैं, वो बड़ी खबरों को समझाते हैं, छोटी खबरों में उलझना स्टेटस मैच नहीं करता।– बिसंभर अब बेधड़क बोलने की मुद्रा में थे।

व्हाट द हेल? व्हेयर इज़ द डैम कॉमन मैन?” - एसपी चीखे उन्होने मुक्के को पलंग पर तेज़ी से दे मारा

बिसंभर चौंक कर उठ बैठे। पसीने से तर-बतर। कहीं कोई नहीं। आवाज़ अब भी कानों में गूंज रही थी। सांसें एक्सप्रेस की रफ्तार पकड़ चुकी थीं। ये सारे सिंपटम ज़िंदगी के होने के थे। ज़िंदगी के होने और ज़िंदा होने का फर्क़ है। एसपी कांच की दीवारों के भीतर जाने से घुट रहे थे और यहां लंबी फेहरिस्त है जो दीवारों के उस पार न जाने की वजह से घुटते हैं। कमाल के खांचे हैं। इन्ही खांचों के एक से लोग आज इकट्ठा होंगे। आज कार्यक्रम है, एसपी की पुण्यतिथि पर उन्हे श्रद्धांजलि देने का।

Tuesday, May 19, 2015

एक उदास संवाद


"मैं उदास हूं,"- ये उन्होने लिखा है। "क्यों उदास हैं?" - मैने पूछा। जवाब आया - "समाज किस दिशा में जा रहा है ये सोचकर मैं उदास हूं।" मैने फिर पूछा- "किस दिशा में जा रहा है?" उन्होने कहा- "यही तो मालूम नहीं चल रहा। इसी बात को लेकर उदासी है। तो क्या आपने पता किया...?"
"देखिए कैसे हालात हैं कितना भ्रष्टाचार है, कितना दुख मजदूरों, किसानों और आम आदमी के हिस्से में है।" - वो उदास होते हुए फिर मैसेज फेंकते हैं।
"हां ये तो है, पर रास्ता क्या है?" - मैंने पूछा
"रास्ता क्रांति है, संपूर्ण क्रांति का वक्त है" - इसबार उन्होने मैसेज के साथ एक गुस्से वाला स्टिकर भी प्रेषित किया
मैॆने फिर पूछा- "कहां से की जाए, कोई जगह देखी है क्या?"
"हम जहां हैं वहीं से उठ खड़े हों"- उनका जवाब आया
मैने कहा- "फिलहाल तो मैं वाशरूम में हूं"
"ये मज़ाक का वक्त नहीं है, मामला गंभीर है हम युवाओं को चेतना होगा, अब वक्त नहीं है" - वो लगातार लिखते गए, उन्होने आगे लिखा- "अगर हम चूक गए तो आनेवाला कल हमें माफ़ नहीं करेगा, बच्चे हमसे सवाल पूछेंगे"
"तो क्या हमने अगर आज क्रांति कर दी तो बच्चे सवाल पूछना बंद कर देंगे?" - मेरा कौतूहल था
उन्होने कहा- "यकीनन हम उठ खड़े होंगे तो उनका भविष्य सुधरेगा"
मैने कहा- "कल बिहारी लाल दुबे आपके बारे में पूछ रहे थे।"
उनका संक्षिप्त मैसेज गिरा- "क्या ?"
"वो पूछ रहे थे कि आजकल आप काम-काज में ध्यान नहीं दे रहे।"
"वो नासपीटा, कामचोर मेरे काम के बारे में पूछता है, अहमक कहीं का। आपको मालूम है कितना बड़ा भ्रष्ट आदमी है वो"- इस बार उनका मैसेज कई मैसेजों से बड़ा था
"हूं....!!!" - मैने बस इतना लिखा
उनके दनदनाते हुए तीन मैसेज गिरे- "आपको मालूम है तीन नक्शे पास करने में उसने 3 लाख ऐंठे, उसमें एक कैंडिडेट मेरा था, लेकिन साले ने कंसेशन दे कर उसे भी तोड़ लिया"
"आपको मालूम है व्यभीचारी भी है वो, एक होटल में पकड़े जाने पर मैने ही उसे बचाया था?"
"लीचड़ इतना कि एक चाय भी पिलानी हो तो कोशिश करता है कि पैसे सामने वाला ही दे"
दुबे जी का तबादला हो गया - "मैने फिर मैसेज फेंका"
"क्या बात कर रहे हैं, ये तो बड़ी अच्छी ख़बर है"- उनका जवाब तुरंत मिला एक खींसे निपोरते स्माइली के साथ
"हूं- खबर पक्की है" - मैंने लिखा
"आपकी मिठाई पक्की, कमाल की खबर सुनाई है आपने" - ये उनका आखिरी संदेश था, और उसके तुरंत बाद मेरे फोन की घंटी बजी। ये उन्ही का फोन था।

Tuesday, May 12, 2015

बेल की सेल


बेल का जूस जालिम नहीं होता। जब गर्मी कपारे चढ़के नाच रही हो, बात-बात आप "पिनकावतारी" (पिनक रहे हों या...) हो जाते हो बेल ले लीजिए। फोड़िए, पानी में घोलिए और उतार लीजिए। बेल की अलग-अलग खूबी की वजह से इसके अलग-अलग मायने हैं। सार एक ही है...चढ़ी गर्मी को उतार देना...छटपटाहट को ठंडा कर देना।

जोखी गुरू बेल मुड़ा के ठंडे हो गए हैं। नुक्कड़ पर टकराए तो मैं सहम गया...इससे पहले कि अपशकुनी सवाल दागता खुद ही फूट पड़े- "अरे नहीं नहीं...गर्मी चढ़ रही है...हमने सोचा बाल उतरवा लें...।" बेल मुंडवाना जिगर की बात होती है। जिगर हर किसी के पास नहीं होता। जोखी गुरू के पास जिगर है। मैने कई बार उन्हे ट्रैफिक सिग्नल तोड़ने के बाद भी पुलिस से उलझते देखा है। अपनी पार्टी और पद का हवाला देते। ये भूलकर कि अगर गर्मी पुलिसवाले के सिर पर शिफ्ट हुई तो उनके बेल का मुरब्बा बनाने में वो देर नहीं करेगा।

कथा से भटकें नहीं यहीं अटके रहें। हां तो मैं कह रहा था कि कि बेल की सेल लगी है। जोखी गुरू को बेल में अथाह रुचि रही है। वो बेल खाते हैं, बेल का जूस पीते हैं, बाल उतरवाकर अपने उत्तर शीर्ष भाग को बेल में तब्दील कर देते हैं और बेल दिलवाते भी हैं। इन भांति-भांति की बेलों का मकसद बस एक होता है टेंशन को दूर भगाना।

मुझे तो लगता है कि हालिया "बेल" घटनाएं एक मानवतावादी कदम है। मैं इसका तहेदिल से स्वागत करता हूं। गर्मी के दिनों में ऐसी बेल की सेल होती रहनी चाहिए। जेल में कई लोगों के हाजमे गड़बड़ा जाते हैं। ऐसे में बेल किसी न किसी रूप में उनके हाजमे के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है। यहां जोखी गुरू बेल को लेने बिसेसरगंज मंडी में सबेरे-सबेरे जा धमकते हैं अच्छा बेल हासिल करने के चक्कर में दो-चार घंटा और कभी-कभी तो दो-तीन दिन इंतज़ार करना पड़ता है। लेकिन सलमान को देखिए, चार घंटे में बेल का जूस, बेल का मुरब्बा और बेल सब मिल गई। हाजमा तो ठीक होगा ही।

जयललिता अम्मा को बेल मिली है। फिर राम लिंगा राजू को भी बेल मिल गई। बेहद इंसानी अप्रोच पर आंखें भर आती हैं। आज जोखी गुरू फिर नुक्कड़ पर टकरा गए। मैने कुल जमा तीन बेल देखे हैं। एक तो उनके शरीर के उर्ध्व भाग पर रखी उनकी सजीव बेल जिसमें उनकी दोनों आंखें धंसी हैं। और उनके हाथ में फंसे दो बेल। जोखी गुरू मिले तो हांफ रहे थे। आंखे कोटरो में चली गईं थीं। बेहद जर्जर शरीर। मैने पूछा- गुरू ये क्या ? उन्होने बताया- "असल में बेल की सेल चल रही थी, तो एक दिन में छह बार बेल का जूस ले रहा था, अत्यधिक बेल ने पेचिश दे दी।"

"...और इसके बाद भी दो बेल हाथ में?" - मैने पूछा

वो बोले- "अरे नहीं भाई। हुआ यूं कि कल कल्लन धोबी से एक सिपाही दुकान लगवाने के एवज़ में पैसे मांग रहा था। कल्लन ने मना किया तो उसने डंडा चला दिया। कल्लन ने आव देखा न ताव सिपाही को लपेट दिया। अब सरकारी काम में बाधा पहुंचाने और पुलिसवाले पर हाथ उठाने के चक्कर में जेल में है।"

"तो ये बेल क्या करेगा?" - मैने जिज्ञासावश पूछा

"दरअसल मैने कल्लन को कहा था उसे बेल दिलवा दूंगा। पर आप तो जानते हैं आम आदमी को बेल दिलवाना कितना दुरूह काम है। अब ये बेल उसके लिए ले जा रहा हूं...ताकि इसे भिजवा कर अपना वचन पूरा कर लूं।" जोखी गुरू ने एक सुर में सारी बात बताई, अपने सजीव बेल पर उभरे पसीने को अंगोछे से पोछा और निकल लिए। मैने देखा वो प्रेशर में थे, बेल के चक्कर में...इज्ज़त दांव पर थी भागना ज़रूरी था और हां कल्लन को बेल भी तो दिलवानी थी।

Wednesday, April 1, 2015

वो 'कलफ़दार पर्सनॉलिटी'


वो अक्सर मिलते हैं। मुस्कुराते हैं हौले से पूछते हैं- और कैसे हैं? फिर निकल जाते हैं। बिना ये सुने कि सामने वाले ने जवाब क्या दिया। औपचारिकताओं में उलझना कीमती समय को खर्च करने से बचाना होता है। समय कीमती हैं। वो हमेशा समय के साथ चलते हैं। समय किसी के लिए नहीं रुकता...वो भी नहीं रुकते। समयानुकूल संवाद बनाना स्मार्टनेस की निशानी है। लिहाज़ा वो संवाद बनाते हैं।
आज वो बब्बन की दुकान पर बेसन लेने पहुंचे तो तबीयत से गीले थे। आसमान में अचानक बादल आए थे ठीक उसी तरह वो भी आ धमके थे। मैं बब्बन की दुकान पर सत्तू की पतासाजी के लिए गया था। दिल्ली में सत्तू की खोज निरर्थक नहीं है। ये सिद्धि जैसी है। शुद्ध मिल जाए तो समझ लीजिए डबल सिद्धी। खैर...। वो बेसन की खोज में अवतरित हुए। मिले...तो मुस्कुराए...। और पूछा- कैसे हैं? मैंने जवाब दिया- अच्छा हूं आप बताएं...। उन्होने फिर नहीं सुना और बब्बन से बेसन का भाव पूछकर किलो भर देने को कहा। इसके बाद फिर मुझे देखा...मुस्कुराए...और बोले- और बताइए...। मैने जवाब दिया- जी ठीक है आप कहें...कैसा चल रहा है...। वो फिर मेरे सवाल को अनसुना कर बब्बन को पैसे देने लग गए।

दरअसल बड़े लोग सिर्फ सवाल पूछते हैं। जवाब देने या सुनने का उनके पास वक्त नहीं होता। देश में एक शगल सा चल निकला है। ऐसे प्रतिभावान लोगों का अपना गिरोह है। मैं उन्हे तब से जानता हूं जब वो कॉलेज में थे। उनके कुर्ते में लगी कलफ़ उनके शरीर में समाकर उनके गले और ज़ुबां तक पर चढ़ गई है। उनका बदन हमेशा अकड़ा रहता है। मुंह आगे से उठा हुआ...नाक न जाने क्या सूंघने पर आमादा रहती है। वो जब भी मिलते हैं हाथ मिलाते हैं...उनकी ग्रिप मजबूत होती है। वो अंदर से बाहर तक पॉजिटिव हैं। बाज़ार में पॉजिटिविटी की डिमांड है। बाज़ार में थिंक पॉज़िटिव के नाम से न जाने कितनी किताबें उतरीं और चल निकलीं। ये अलग बात है मैं उन किताबों को पढ़कर भी बाज़ार के हिसाब से कलफ़दार न बन पाया।

मैं जब उन्हे देखता हूं तो जोश से भर जाता हूं। कोशिश करता हूं कि रिक्शेवाले को - चल बे कहकर बात करूं। किसी छोटे को - तू तड़ाक करके बात करूं...। थोड़ी सी चूक होने पर सामने वाले का पानी उतार कर रख दूं। पर न जाने क्या है जो रोक देता है। कलफ़दार कुर्ते का फर्क तो पड़ता है। कॉलेज टाइम में कलफ़दार कुर्ता पहना होता तो शायद बात कुछ और हो सकती थी। काश कि शिक्षकों को श्रद्धा भाव से देखने की बजाए अद्धा (क्योंकि वो अक्सर ये बताते थे कि किन-किन प्रोफसरों को अद्धा पहुंचाते रहे) भाव से देखा होता। वो बेसन लेकर मेरे सामने से निकल रहे हैं।
अचानक हाथ कंधे पर पड़ता है। वो कहते हैं- चलो दोस्त निकलते हैं। मैं शेक हैंड करने के लिए हाथ बढ़ाता हूं...और वो कंधे को दबाते निकल जाते हैं ये कहते- मिलते हैं...। मेरी दबी ज़ुबां से शब्द निकलता है- कब...? ये अनुत्तरित रह जाता है हमेशा की तरह...। बड़े लोग सवालों के जवाब नहीं देते।

Thursday, January 1, 2015

"टीपो और खमचो दर्शन"


"खमचना" एक दुर्लभ किंतु मूल्यवान शब्द है। बनारस में शिद्दत के साथ शांतिप्रिय व्यक्ति मन अशांत होने पर इसका प्रयोग दैहिक तौर पर करता है। मुझे याद है मेरे एक अभिन्न कृशकाय मित्र अक्सर नथुने फड़फड़ाते इस भारी भरकम असरदार शब्द से अत्यंत मारक हुआ करते थे। बात उन दिनों की है जब बोर्ड की परीक्षाओं में कल्याण राज था। कृशकाय मित्र ज्ञान से ज्यादा गति पर भरोसा करते थे। उनका गंभीर दर्शन ये था कि अध्ययन आपको गति नहीं देता। वो स्पीड ब्रेकर होता है आप बैठ कर पढ़ने में ही रह जाते हैं। आनेवाला समय गति का है, लिहाज़ा अध्ययन की बजाए टीपें और आगे बढ़े, गतिशील हों...।

दर्शन से धनी होने के बावजूद कृशकाय क्रांतिकारी मित्र किस्मत के धनी नहीं हो पाए। कल्याण राज में उनके दर्शन को दो कौ़ड़ी का मानकर खारिज कर दिया गया। भारी संख्या में उनके दर्शन पर मर मिटनेवाले क्रांतिकारी परीक्षा परिणाम आने पर सफलता लिस्ट से ही मिटा दिए गए। लेकिन हर रात की एक सुबह होती है..हुई। जल्द ही सत्ता बदली प्रशासन मुलायम हुआ। "टीप दर्शन" को ज़मीन मिली, दर्शन चढ़ा तो तमाम क्रांतिकारी परीक्षा हॉल में मय कुंजियों किताबों के साथ दाखिल हुए और गतिमान भए।

कृशकाय मित्र ने दो ही दर्शन दिए। "टीप और खमचो दर्शन" । टीप जहां आपको गति देता है तो वहीं खमचना आपको निर्भीक करता है। खमचना दरअसल शब्द से आगे एक क्रिया है। इसका "क्लासिकल एप्रोच" दरअसल पीटने से आगे का है। अपने दुर्लभ दर्शन और असीम प्रतिभा के चलते कृशकाय मित्र एक पार्टी के अमिट क्रांतिकारी कार्यकर्ता, फिर नेता और पदाधिकारी बन उच्च आसन पर सुशोभित भए। बड़े ठेकों में उनकी हिस्सेदारी हुई। प्रोजेक्ट बनाने में उनका टीप दर्शन उनके बहुत काम आया, जहां बात नहीं बनी वहां खमचो दर्शन चमका।

Wednesday, December 24, 2014

एक भैंसपति का दर्द

परेशां रात सारी सितारों तुम सो जाओ....आजकल यही गज़ल सुनते सुनते वो सो जाते हैं। मन बहुत उदास है। इतना उदास कि खाना-पीना, दिसा-मैदान सब भरसक टल जाने की स्थिति तक टालते हैं। करें क्या? उनकी भैंस सिक्कड़ के साथ उड़ा दी गई। मुरैना में आजकल भैंस उड़ाउ गैंग सक्रीय है। तीन भैंसें मरदूद कट्टे दिखाते ले उड़े। वैसा ही वाकया उनके साथ भी हुआ है। वो अक्सरहां सोचते हैं कि काश कि हम आज़म खां रहे होते। काश कि मुरैना में समाजवाद रहा होता। पर हाय रे किस्मत।
इससे याद आया कि वाकई यूपी की जनता ने एक बेहद संवेदनशील सरकार तो चुनी है। मुझे तो शक ये भी होता है कि चोरों ने आज़म की भैंस यूपी की कानून व्यवस्था का औचक टेस्ट करने की नीयत से उड़ाई होगी। और बहादुर दिलेर यूपी पुलिस ने साबित किया कि वो अक्ल और भैंस दोनों को ही उचित सम्मान देते अपने काम में दक्ष है। पर मध्यप्रदेश के मुरैना में हाल बेहाल हैं। वो कोस रहे हैं कानून-व्यवस्था बताइए। "बीतै ठाड़ी रही थी भैंस...बा ने मूड़ में लट्ठ मारौ..." और वो फूटकर रोने लगते हैं।
एसपी भरोसा देते हैं। चिंता मत करिए मिल जाएगी। इस बीच एसपी गौर से उनके चेहरे को कई एंगिल से देखते हैं। मैने पूछा इतनी गंभीरता आप इन्हे क्यों देख रहे हैं? क्या आपको इनपर ही अपनी भैंस चुराने का शक है? वो बोले - "नहीं जी....मैं तो अपने लिए प्रेरणा खोज रहा हूं....।" मैं चौंका - "प्रेरणा और पीड़ित के चेहरे पर???"
"जी! दरअसल मैं देख रहा हूं कि इनका चेहरा बस किसी एंगिल से सूबे के किसी मंत्री से मिल जाए फिर देखिए रातों रात भैंस हाजिर कर दूंगा।"- एसपी साहब ने जवाब दिया
ईश्वर किसी को कुछ दे या न दे। लेकिन किसी भैंसपति को आज़म खां या फिर सूबे के किसी दूसरे मंत्री सा चेहरा ज़रूर दे। कम से कम एक एंगिल से ही सही।