Saturday, November 27, 2010

मुझे भूले तो नहीं...मेरे शहर


मेरे शहर...
तुम मुझे भूले तो नहीं होगे न...
मेरे लिए ये ज़रूर मुश्किल है
कि तुम्हे याद रखूं
मेरे इर्द-गिर्द हर रोज़ बवंडर उठता है
दिल में हूक का समंदर उठता है
बहुत पहले चुरा लिया गया हूं मैं
भरे बाज़ार में...

मेरी पहचान बुझ गई है
हर रोज़ नींद संकरी गलियों में
उलझा देती है मुझे...
आइने में मेरी जगह...
तुम दिखते हो मेरे शहर...

वक्त की हर तह, हर सिलवट
तुम्हारी तस्वीर में साफ नज़र आती है
तुम कहोगे नहीं...
पर कुछ बातें ये भी कह जाती हैं...

तुम मेरे बिन उदास तो होगे न
मेरे शहर...
खुद में झांककर...
मेरे छोटे से बड़े हुए पैरों के निशान
ढूंढ़ते तो होगे तुम भी कभी...
या कि तुम्हे भी...
वक्त नहीं मिलता
गुज़रे कल को खंगालने का...

आज और अभी के जाले में
तुम तो नहीं उलझ गए कहीं...
तुम मेरे घर के आंगन में
मुझे खेलते बढ़ते...देखते तो होगे न

और देखो, उसी बूढ़े जर्जर मकान के किसी कोने में
मेरे पिता का बचपन भी...
दबा होगा कहीं...
और आंगन के विस्तार में
खुले आकाश के नीचे...दबी होगी
उनके जाने की कहानी भी...

सब जोड़कर रखना मेरे शहर...
कभी लौटा...खुद को भूला हुआ
तो याद कराना
इन सभी से...

याद है...
अक्सर तुम्हारी रहस्यमयी गलियों में...
कैसे सहम जाता था मैं...
और कैसे तुम शांत पड़े रहते थे...
तुमने मुझे बताया था, मेरे शहर...
अंधेरे का मतलब...
सहमना नहीं होता उजाले की तलाश होती है...

मेरे शहर मेरे घर के चबूतरे को
बुहारते रहना...
अपने हिस्से की धूप से
और सके तो एक टुकड़ा हमेशा की तरह
ठाकुर जी की... कोठरी की
छोटी खिड़की सी फेंक दिया करना...
अंदर ताकि मेरे घर के हर हिस्से को
मेरी हरारत का लम्स मिलता रहे...

तुम तो जानते हो मेरे शहर...
बड़े शहरों की धूप बड़ी खुरदुरी होती है
और बड़े शहरों में
ऊंची दंभ से भरी इमारतों में
रहनेवाले  लोगों के दिल...
रेत की तरह भुरभुरे होते हैं....

मैं महसूस करता हूं कई बार
मेरा दिल कई बार धड़कता नहीं है...
कई बार उसकी धड़कन की रौ में...
फंसती रेत की किरकिरी महसूस करता हूं...
मेरे शहर...
हो सके तो मेरे घर के उस कमरे से
जहां मेरी नाल दफन है
कुछ मिट्टी भेज देना...

और हां मेरे प्यारे शहर...
वो किनारा तो तुम्हे याद होगा...
जहां मेरी अम्मा ने अंतिम बार
बंद आंखों और जमी देह से...
अपने पैरों से गंगा को स्पर्श किया था...
मेरे लिए...हो सके तो...
उस पानी के टुकड़े को बचा कर रखना...

क्योंकि जब लौटुंगा तुम्हारे पास
तो मेरे शहर...
मुझे ज़िंदा तो करोगे न तुम

और अंत में...
मेरे बहुत प्यारे शहर
खुदा के लिए...देखो
ये न कहना कि तुम भी बदल गए हो...
तुम्हारा दिल भी रेत हो चुका है...
मेरे शहर...
खुदा के लिए नहीं...
क्योंकि मेरे जिंदा होने की उम्मीद तुम हो...
और उनके भी जो अब नहीं हैं....
ये तो जानते हो न तुम...?

Thursday, November 18, 2010

रोटी...
जुगाड़ बन गई है
रोटी खिलवाड़ बन गई है
हड्डी के ढांचों पर राजनीति
अक्सर रोटी सेकती है...
तमाम दधिचियों की आहूति से...
हर रोज़ राजनीति चमकती है...
हर रोज़ किसी न्यूज़ चैनल पर...
इनकी खबरें वेश्या सी मचलती हैं...
सुनो अगर हो सके तो कान मत दो
मुल्ला, मस्जिदों में अज़ान मत दो
मंदिरों की घंटियों उतार फेंकों...
क्योंकि हर तरफ अस्थि पंजर फैले है...
शुभता का कहीं भी संकेत नहीं...
राजनीति में हर चेहरे
मनहूसियत की हद तक मैले हैं...

Wednesday, November 3, 2010

दरख्त सूखते नहीं...

दरख्त यूं सुखते नहीं...
दरख्त कभी सूखते नहीं
अगर उनको मिल जाती थोड़ी तसल्ली 
इस बात की...
कि अगर वो न रहे तो...
ज़मीन पर ज़िंदगी
सिकुड़ती चली जाएगी...
गर वो न रहे तो
नीड़ की जगह
बेहिस और रूखी इमारतों में होगी 
और गुरूर से तनी इमारतों में...
कभी ज़िंदगी नहीं पनपती...
दरख्त कभी सूखते नहीं...
गर बता देते उन्हें उनके होने की अहमियत...
गर वो न देखते उनके ऊपर तनती कुल्हाड़ियां
मैने सुना वो दरख्त टूटता हुआ
ये कहता रहा...
अब क्या रखा है इस जहां में...
जब एक इंसान नहीं पूरे मकां में...

रोटी...

रोटी...
जुगाड़ बन गई है                            
रोटी खिलवाड़ बन गई है
हड्डी के ढांचों पर राजनीति
अक्सर रोटी सेकती है...
तमाम दधिचियों की आहूति से...
हर रोज़ राजनीति चमकती है...
हर रोज़ किसी न्यूज़ चैनल पर...
इनकी खबरें वेश्या सी मचलती हैं...
सुनो अगर हो सके तो कान मत दो
मुल्ला, मस्जिदों में अज़ान मत दो
मंदिरों की घंटियों उतार फेंकों...
क्योंकि हर तरफ अस्थि पंजर फैले है...
शुभता का कहीं भी संकेत नहीं...
राजनीति में हर चेहरे