Friday, December 14, 2012

विकास बलिदान मांगता है भाई

दुनिया विकास से जलती है। नहीं। दुनिया विकास करने वाले से जर बुताती है। बताइए ऐसा घोर कलयुग है कि कहने को नहीं। बेचारा बिहार था क्या। पंद्रह साल तक जंगल राज था। तब हिंया से हुंआ बिहारी दउड़ते थे। दउड़ने में भी लोचा था। सड़क ‘खरबुदही’ (मतलब चिकनी नहीं) थी। अब देखिए एकदम लकालक। कहीं चले जाइए मुंह उठाए। मुंह नीचे करके सड़क देखने की ज़रूरत नहीं है। बस धउड़ते जाइए पड़ाक-पड़ाक। ये सब कैसे हुआ? ऐसे हुआ कि आपने यानी बिहार की जनता ने नीतीश कुमार में भरोसा जताया। कहा लो भइया करो विकास। और विकास होने लग गया भाकाभक। विकास दर , दर-दर बांट दी गई। लो रट लो। बाहर कोई बिहारी कहके लताड़े तो समझा देना। हमने समझ लिया रट लिया। बाहर कोई बकबकाया तो हमने समझाया। अब आगे सुनिए।

एक दिन बिहार के सुशासन के फाउंडर को कहते सुना। “खूब पीजिए जितना मर्जी हो पीजिए जगह-जगह इसलिए मधुशाला की व्यवस्था कर दी है, पीजिए लेकिन पैसा देकर।” सुनके पुत्तू पांणे बमक गए। इ का बात हुआ मुख्यमंत्री कह रहा है दारू पीजिए। तब पुत्तू पाणे को समझाया गया था आप विकास की बात नहीं समझेंगे। “तो क्या विकास दारू से होता है।” पुत्तू पाणे ने पूछा था। सब उनके ऊपर पिल पड़े। “अब सुशासन बाबू कह रहे हैं तो होगा ही” बात आई गई हो गई। इस बीच दनादन मधुशालाएं खोली गईं। विकास होने लगा। लठैत-बलैत ‘बियर शॉप’ खोलने लगे। समाज विकास को ‘बियर’ करने लगा। जिन लोगों ने नए दौर के विकास की खिलाफत की उनकी विकास की गंगा बहा रहे ‘बियरों’ (धनभालू) ने भरहीक खातिरदारी की। इसमें समाजवाद का खयाल रखा गया हर उम्र, हर जाति, हर मजहब, हर लिंग को एक दृष्टि से देखते हुए उनकी पुष्ट सुताई की गई। आखिर ये सरकारी काम में बाधा जैसा था।

पुत्तू पाणे अखबार हाथ में लिए दनदनाते हुए दालान में पहुंचे। “गुरू बाहर निकलो।” आवाज़ सुनके लगा कि जैसे अपने उधार की वसूली करने आए हों और नहीं दिया तो खैर नहीं। मैंने कमरे की खिड़की से झांकते हुए चुप रहने का इशारा किया और कहा बस आया पाणे जी। नीचे पहुंचा तो उन्होने तड़ से अखबार मेरे हाथ में थमाते हुए कहा- “लो देखो विकास दू दर्जन से ज्यादा लोग निपट गए दारू के चक्कर में। अब बोलो?”

दरअसल पत्तू पाणे जैसे लोगों की समस्या यही है। नज़रिए का फर्क है। विकास के एजेंडे को और उसके रास्ते को आम आदमी और पुत्तू पाणे जैसे टुच्चे मध्यमवर्गी लोग कभी नहीं समझ सकते। ये लोग ये समझते हैं कि विकास ऐसे ही हो जाता है। गंवार कहीं के। अरे विकास के लिए बलिदान देना पड़ता है। हर डिपार्टमेंट विकास की राह में बलिदान मांगता है ये एक बड़ा यज्ञ है भाई। अब देखिए किसी न किसी की बलि तो देनी पड़ेगी न। ये तो भारतीय परंपरा का हिस्सा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में विकास हो रहा है हर साल दो सौ लोग करीब-करीब अपनी बलि देते हैं। स्वेच्छा से। कोई दबाव नहीं होता कि भईया दो ही। ये जानते हुए कि ‘इनसेफेलाइटिस’ को समझने और जानने तक में ही सरकारी डॉक्टर उनको निपटा देंगे वो पहुंचते हैं सरकारी अस्पतालों में।

अपराध को रोकने को लेकर विकास हो रहा है। लेकिन ज्ञानी व्यक्ति ही इसे समझ सकता है। रामचरित मानस की पंक्ति याद करिए ‘जस जस सुरसा बदन बढ़ावा, तास दून कपि रूप दिखावा।’ अरे मूरख अपराध बढ़ेगा तभी तो पुलिस डबल रूप दिखाएगी। ठीक वैसे ही दारू के ठेके खुलेंगे तो सरकारी खजाने में खनखन होगी। सरकारी खज़ाना भरेगा तभै तो विकास होगा। हां एक विनम्र निवेदन सुशासन बाबू से, कि उन्हे एक बयान जनहित में जारी करना चाहिए देखो भइया अगली बार से ब्रांडेड लो। नहीं तो पुत्तू पाणे ‘इमोशनल फूल’ जैसे लोग कहीं विकास की इस गंगा को नज़रिया न दें मुंए।

Thursday, November 15, 2012

हमारा फेसबुकिया समाज

पिछले लंबे समय से ये विचार मेरे दिमाग में चल रहा था कि दीपावली के शुभ अवसर पर अपने फेसबुक समाज को एक विद्वान की शैली में शुभकामना संदेश दूं। लेकिन नून-तेल-लकड़ी के जुगाड़ में वक्त मिला नहीं। मैं धन्य हो जाता हूं जब अपने इस समाज को पुष्पित और पल्लवित होते देखता हूं। दिल बगीचा होता है कि एक से बढ़कर एक लोग मुंह उठाए (गलत सेंस में न लें इसका मतलब गर्व से है) यहां टहलते पाए जाते ...
हैं। इस समाज में सब हैं साहित्यकार, कलाकार, पत्रकार, चित्रकार, गवइए, बजइए, अध्यापक, इंजिनयर, डॉक्टर, प्रोफेसर, नेता, अभिनेता जो फ्री ऑफ कॉस्ट ज्ञान देते हैं कोई चार्ज नहीं। ये अत्यंत हर्ष का विषय है कि दुनिया में समाजवाद हो न हो यहां समाजवाद दिखता है।

हांलाकि दिक्कत ये है कि अगर गवइए की प्रतिभा गाने की है तो वो इस समाज में प्रतिभा प्रदर्शन कैसे करे उसके लिए ये थोड़ा जटिल हो जाता है। पहले गाए, रिकॉर्ड करे फिर अपलोड करे वगैरह-वगैरह। उसके बाद काम शुरू होता है हमारा कि हम उसे सुने, पर सुने कैसे इयर फोन तो है नहीं, जिस पीसी पर काम करते हैं उसका स्पीकर तो खराब है। पिछले दिनों ऑफिस में बिंदु कुमार यही कर रहे थे। उनके किसी गवइए मित्र ने ऐसा ही कुछ गा कर अपलोड किया था। आवाज़ धीमी आ रही थी। उसको सुनने के लिए बाईं ओर झुके, कान को स्पीकर तक पहुंचाना था...मगर कमबख्त कुर्सी को ये गंवारा न हुआ बैलेंस बिगड़ा और वो तुनक के खिसक गई। इसमें हुआ ये कि जिस कान को स्पीकर तक पहुंचना था वो ज़मीन पर पड़ा था। पूरे शरीर का भार लिए। खैर...। तो ये समस्या है मुझे लगता है मार्क जूकर बंधु इधर ध्यान देंगे। मामला कुछ बन जाए तो अपने फेसबुकिया समाज में गवइए भी फले फूलें।

नेता भी फेसबुक पर बहुतायत में पाए जा रहे हैं। कोई हर हफ्ते अपनी फोटू बदलता है कोई भाषा। जो कभी सात्विक होती है कभी तामसिक। कुछ नेता तो जोक (खून चूसनेवाला नहीं) लिखते पाए गए हैं। बताइए इतने सरल टाइप नेता जिस समाज में हों तो गर्वानुभूति से भला कौन बच सकता है। महात्मा गांधी के वक्त अगर फेसबुक आ गया होता तो उनका जोकसंग्रह भी पढ़ने का मौका मिलता। क्योंकि बापू तो और भी ज्यादा हाजिर जवाब थे। आज के नेता जवाब दें न दें हाजिर हर मौके और हर समाज में रहते हैं।

अभिनेता भांति-भांति के पोज़ के साथ उतरते हैं। हम यहां एक पूरा पन्ना लिख दें। समाज, राजनीति, देश ओबामा-ओसामा सब पर लिख डालें लेकिन ‘लाइकिंग’ कंगाली स्टाइल में ही होती है। पर इनको देखिए एक लाइन लिखा नहीं कि हजारों कमेंट, अरे कमेंट लिखनेवालों ज़रा ये भी समझो अगले ने पढ़ा भी या नहीं। अपन के पोस्ट पर लिख देते तो बाकायदा नाम उच्चारित करते हुए धन्यवाद ज्ञापन होता। कोफ्त तो होती है साहब ज़मीनी समाज में जगह नहीं मिल पाई थी, तब तो आए थे फेसबुक पर, अब ये हिंया भी पहुंच गए, बताइए, हद है।

फिर पत्रकार हैं। वाह। अपने कर्म से बाज नहीं आएंगे। जहां खड़े होंगे मुंह टेढ़ा किए। इंतज़ार करते कि हमसे भी कोई कुछ कहे। नहीं तो, हम कहेंगे नहीं पेट में चिकोटी काटेंगे। पिछले दिनों मैंने फेसबुक समाज में उपस्थित बड़े, छोटे, मंझोले और कुछ हम जैसे खंघोले (वो जो छोटे से भी गए गुजरे हैं) पत्रकारों की फोटुओं का अध्ययन किया। इसमें मैंने पाया कि ये सब चाहे बड़े ब्रांड में हों या छोटे, अखबार में हों चाहे इलेक्ट्रानिक मीडिया में, चश्मे के या बगैर चश्मे के, दाढ़ी या निर्दाढ़ी। ये बड़े खुराफातिए होते हैं। नटखट। कुछ फोटो में पाजीपन की कुछ मात्रा भी पाई गई। आप ने ध्यान न दिया हो तो एक बार देखिएगा ज़रूर। खुराफात आपको मिलेगी।

फेसबुक समाज की एक और विधा का मै कायल हूं। कि अगर वक्त नहीं है तो लिखिए मत ‘लाइक’ कर दिजिए। माना कि भारतीय हर विषय पर टिप्पणी करने की नैसर्गिक प्रतिभा रखते हैं पर समयाभाव तो अब यहां भी है। पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने अपने टूटे टांग की तस्वीर फेसबुक पर साट दी। 175 लोगों ने उसे लाइक किया। कुल जमा तीन टिप्पणियां आईं। एक में लिखा था ’अरे’, दूसरे में लिखा था ‘कैसे’, तीसरी टिप्पणी खुद मेरे टूटे टांग वाले मित्र की थी लिखा था थैंक्स मित्रों। सच कहता हूं मुझे इस संवाद का मतलब आज तक समझ नहीं आया। वैसे टिप्पणी करने से याद आया कि टिप्पणी किसी भी विषय पर बनारसियों से करवा लिजिए। वैसा माल कहीं और नहीं मिलेगा। संकटा प्रसाद ने नक्की यादव से उनके नए लंगोट के रंग बारे में टिप्पणी मांगी। नक्की ने कहा ‘क्या टिप्पणी दें रंग चाहे जो हो, जाना तो दक्खिन ही है।‘