Wednesday, December 24, 2014

एक भैंसपति का दर्द

परेशां रात सारी सितारों तुम सो जाओ....आजकल यही गज़ल सुनते सुनते वो सो जाते हैं। मन बहुत उदास है। इतना उदास कि खाना-पीना, दिसा-मैदान सब भरसक टल जाने की स्थिति तक टालते हैं। करें क्या? उनकी भैंस सिक्कड़ के साथ उड़ा दी गई। मुरैना में आजकल भैंस उड़ाउ गैंग सक्रीय है। तीन भैंसें मरदूद कट्टे दिखाते ले उड़े। वैसा ही वाकया उनके साथ भी हुआ है। वो अक्सरहां सोचते हैं कि काश कि हम आज़म खां रहे होते। काश कि मुरैना में समाजवाद रहा होता। पर हाय रे किस्मत।
इससे याद आया कि वाकई यूपी की जनता ने एक बेहद संवेदनशील सरकार तो चुनी है। मुझे तो शक ये भी होता है कि चोरों ने आज़म की भैंस यूपी की कानून व्यवस्था का औचक टेस्ट करने की नीयत से उड़ाई होगी। और बहादुर दिलेर यूपी पुलिस ने साबित किया कि वो अक्ल और भैंस दोनों को ही उचित सम्मान देते अपने काम में दक्ष है। पर मध्यप्रदेश के मुरैना में हाल बेहाल हैं। वो कोस रहे हैं कानून-व्यवस्था बताइए। "बीतै ठाड़ी रही थी भैंस...बा ने मूड़ में लट्ठ मारौ..." और वो फूटकर रोने लगते हैं।
एसपी भरोसा देते हैं। चिंता मत करिए मिल जाएगी। इस बीच एसपी गौर से उनके चेहरे को कई एंगिल से देखते हैं। मैने पूछा इतनी गंभीरता आप इन्हे क्यों देख रहे हैं? क्या आपको इनपर ही अपनी भैंस चुराने का शक है? वो बोले - "नहीं जी....मैं तो अपने लिए प्रेरणा खोज रहा हूं....।" मैं चौंका - "प्रेरणा और पीड़ित के चेहरे पर???"
"जी! दरअसल मैं देख रहा हूं कि इनका चेहरा बस किसी एंगिल से सूबे के किसी मंत्री से मिल जाए फिर देखिए रातों रात भैंस हाजिर कर दूंगा।"- एसपी साहब ने जवाब दिया
ईश्वर किसी को कुछ दे या न दे। लेकिन किसी भैंसपति को आज़म खां या फिर सूबे के किसी दूसरे मंत्री सा चेहरा ज़रूर दे। कम से कम एक एंगिल से ही सही।

Tuesday, December 23, 2014

जनता परिवार का काक स्नान

बिछिला के गिरना एक कला है। मुझे याद आता है गंगा जी के दशाश्मेध घाट पर जो लोग मां गंगा का जल अपने सिर पर फेंकने आते थे उन्हे मां गंगे हर-हर कराने में देर नहीं करती थीं। लपक के तमाम ऐसे लोग सट्ट से पानी में गोत जाते थे ऑटोमैटिक व्यवस्था थी। घाट के किनारे की सीढ़ियों पर लगी काई इसमें विलक्षण भूमिका निभाती थी। और शायद तमाम नहान शहीदों पर बाद में खिखियाती भी होगी। ठेठ भाषा में इसे बिछलाना कहते हैं।
आज बिछलाना याद आया न जाने कहां से, जब दिल्ली में जनता परिवार का दमघोंटू जमावड़ा देख रहा था टीवी पर। कौन समाजवादी ये वाहियात जमात? कौन नेता लालू, मुलायम और नीतीश-शरद??? कौन सा समाजवाद बिहार वाला या मौजूदा यूपी वाला? लोहिया को ज़मीन में गाड़ कर पाट देनेवाले ये समाजवादी कौन सी जनता की बात कर रहे हैं? गुंडई के दौर की...जहालत के दौर की जिसने बिहार-यूपी की कई पीढ़ियों को बर्बाद करके रख दिया। या फिर उन हफ्ताखोरों की जो देश की राजनीति में छा जाने को बेताब हैं?
वामपंथ से लेकर मौजूदा समाजवाद सिर्फ और सिर्फ गंगा (जनता के मुद्दों को) को सिर पर छिड़ककर पवित्र होने पर आमादा है। इन गुंडों की फौज की न तो कोई हैसियत है न बिसात। मैने देखा है कैसे यूपी समाजवादियों के आने पर बदलती है। कैसे गिरहकटों की जमात अचानक कार्यकर्ताओं में तब्दील हो जाती है। उजड्ड, फूहड़ और बेअक्ल लोगों की जमात। इन्हे बिछला के गिरना होगा...नहीं गिरे तो अड़ंगी लगा के गिराया जाए...पर गिरना ज़रूरी है। कोई सत्ता में आए या जाए...बिहार और यूपी को बर्बाद करने वाले इन लुहेड़ों और लंपटों से तो देश बचना ही चाहिए। और नीतीश को क्या कहें...बेग़ैरत इंसान की महत्वाकांक्षा जब आसमान पर चढ़कर नीचे गिरती है तो किरच-किरच कर टूटती है, तब इंसान, इंसान नहीं रह जाता रेप्टाइल हो जाता है। बिना रीढ़ वाला। घिसट कर चलनेवाला और जीभ लपलपाने वाला। जिसकी आंखों में लाल रेशे हैं और वो एक जमात में शामिल होकर भी चोर नज़र के साथ बैठा है।

Tuesday, December 16, 2014

पत्रकारिता द्वितीयोध्याय:

तो वटवृक्ष के नीचे मुनि नारद और शुकदेव जी महाराज आसनारूढ़ हुए। नारद जी ने कहा- "हे मुनिवर ध्यान से बैठिएगा जिसप्रकार मिष्ठान के सुगंध से चीटिंयां खींची चली आती हैं उसी प्रकार ज्ञान की सुगंध से आलोचक रूपी चींटे पहले ही जगह खोज के बैठ जाते हैं। कहीं ऐसा न हों आप उनपर बैठ जाएं और वो...नारायण, नारायण।"

शुकदेव जी ने मुनिवर को प्रणाम करते अपनी कुशल क्षेम को लेकर उनकी चिंता की सराहाना की उनको बारंबार प्रणाम किया। दोनों की विद्वत् ऋषि वट वृक्ष की छाया में बैठे। आसमान में खलीहर खड़े देवताओं ने दोनों ऋषियों का जयघोष करते पुष्प वर्षा की। लेकिन जैसे ही पता चला कि इस मौके का कोई लाइव कवरेज नहीं है वो मुंह बनाए वहां से खिसक लिए।

शुकदेव जी ने एकबार फिर नारद के प्रणाम करते उनसे निवेदन किया कि - "हे मुनिश्रेष्ठ कृपा कर इस जिज्ञासु को पत्रकारिता के समूल दर्शन का लाभ दें।" "हे ऋषिवर आपको तो राजकीय पत्रकारिता कर इतना मिल जाता है कि कुछ करने-वरने की आवश्यकता नहीं किंतु मुझे तो यूं ही रगड़-घिस करनी पड़ती है। सो हे भगवन् ज्ञान दें ताकि कुछ लिख कर उसको छपवा कर मैं भी कॉपी राइट का सुख प्राप्त कर जगत को तारूं।"

इतना सुनते ही मुनिवर नारद अत्यधिक प्रसन्न भए। उन्होने कहा - हे ऋषिवर आपके ऐसा कथन से मैं अत्यधिक प्रसन्न हुआ हूं। आपकी पत्रकारिता के ज्ञान के प्रति उत्कट इच्छा और आसक्ति को देख मैं आनंदित हुआ। अब मैं जान गया हूं कि मैं किसी गलत व्यक्ति के साथ समय खोटा नहीं कर रहा हूं। बस आपसे मेरे लिए पहले ज्ञान की गुरू दक्षिणा यही है कि अपनी पुस्तक की शुरुआत में मेरी दृष्टि और मेरे ज्ञान के आलोक से चुंधियाती एक सुंदर प्रशस्ति लिखिएगा। और मजबूत तरीके से मुझे भारत रत्न या नोबल जैसा कोई सम्मान दिए जाने की वकालत कर दीजिएगा।

ऐसा कहते नारद मुनि के आंखों में पल भर को अजब सी चमक उठी फिर उन्होने आसपास देखा कि किसी ने सुना तो नहीं। शुकदेव जी महाराज ने नारद जी के इस निवेदन पर उनकी स्तुति गाई। वही पास में गिरे कुछ वन फूलों से उनका सम्मान और अभिषेक किया और इस प्रकार से पत्रकारिता द्वितियोध्याय: का प्रारंभ हुआ। ऋषि नारद ने एकतारे को टनटनाते कहा- हे "ऋषिवर जो अबतक जो अबतक गूढ़ से गूढ़ है। जहां सभी कलाएं स्वयं सिद्ध हैं। जो कथ होकर भी अकथ् है। जो संवाद होते हुए भी नि:संवाद है। जो गंभीर होते हुए भी नर्तकी के समान वाचाल है। जो साम है, दाम है दंड है भेद है, जो अविवेकशील विवेक है, जो ज्ञान से ऊपर का ज्ञान है, जो मर्दन है, जो गर्जन है, जो कृपण है, जो क्रांति से लाल है, उस महान पत्रकारिता के विलक्षण ज्ञान का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हू ध्यान पूर्वक सुनें।"

नारद मुनि के ऐसा कहते ही आकाश से फिर देवताओं ने जय घोष करते फूल बरसाए। इन देवताओं का नेतृत्व देवराज इंद्र कर रहे थे। और बाकि सभी देवता उन्ही की चापलूसी के तहत वहां उपस्थित भए थे।

Friday, December 12, 2014

कैलाश ज्ञान

मैं अभिभूत हूं। चाल चरित्र चिंतन और प्रखर राष्ट्रवाद की एक ब्रैंड पार्टी मुझे अभिभूत करती है। मैं उनके ऱाष्ट्रवादी चिंतन का हमेशा से कायल रहा हूं। मैं गंभीर तौर पर मानता हूं कि राष्ट्र की गरिमा, सभ्यता और संस्कृति कब की खत्म हो गई होती अगर ये भगवा महापुरुष हमारे इर्द-गिर्द न होते। मैं इनकी वीरता का कायल हूं। और यकीनन उसके सामने नतमस्तक होता हूं जब दुर्गापूजा के नाम पर दर्जनों लठैत, ललाट से लेकर लार तक को लाल रंग में रंगे भभकाते मुंह के साथ चंदा मांगते हैं।

कल एक वाकया सामने आया। कैलाश सत्यार्थी को नोबेल का शांति पुरस्कार मिला (वाकया ये नहीं है...भाई)। मध्यप्रदेश की विधानसभा में पत्रकारों ने कई विधायकों से इसपर प्रतिक्रिया ली। जो मिला वो आपसे बांट रहा हूं। पूछा गया- "क्या कहेंगे कैलाश सत्यार्थी को नोबेल का शांति पुरस्कार मिलने पर?" राष्ट्रवादी पार्टी के तमाम विधायकों ने सरकार के एक मंत्री कैलाश विजयवर्गीय को नोबेल का शांति पुरस्कार मिलने पर बधाई दे दी।

"वो तो हैं ही ऐसे....उनका काम कमाल है।"
"उनको तो मिलना ही था केलाश भइया शांति के मसीहा हैं"
"हां तो भइया ने काम ही ऐसा किया है, विकास ही विकास कर दिया चारों तरफ...."
कानून मंत्री बहुत गंभीर हुईं। उन्होने लंबी बात कही। "कैलाश आज से नहीं बहुत पहिले से शांति के लिए काम करते रहे हैं। कई बार उन्होने अशांति फैलाने वाले को लट्ठा मारकर भगाया है।" 

राष्ट्र अपने गौरव के क्षणों में विधायकों की इस तस्वीर पर माथा पीट ले। राष्ट्रवादी होने पर शर्म आ जाए। अब ज़रा विपक्ष यानि कांग्रेसियों को सुनिए-
एक ने कहा- अरे भइया जब राज्य में इनकी सरकार केंद्र में इनकी सरकार तो नोबल सेट कर लिया होगा....
एक ने बमकते हुए- विधानसभा में सवाल उठाते गड़बड़झाले का आरोप लगा दिया।
एक कांग्रेसी विधायक तो कपड़ा फाड़ लोट गए बोले- व्यापम क्या कम था, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा घोटाला कर दिया। इस्तीफा दो, इस्तीफा दो।

इस सबके बीच मैने राष्ट्रवाद और संवेदहीनता की दुहाई देते पार्टी के मीडिया प्रभारी से पूछा- कुछ तो करिए, आपके विधायक सब लीपपोत चौका कर रहे हैं। उनका जवाब था- होश में रहिए, वो जो कर रहे हैं करने दीजिए, राष्ट्रवादी जो कहता है वही ध्रुव है। हमने सरकारी विभागों का ठेका लेने से मना किया है कुछ ठेके अभी भी हमारे पास हैं औऱ वो रहेंगे, खबरदार।

Wednesday, December 10, 2014

पुरातन पद्धति पर चर्चा


कल एक खबर आई। एक साहब को किसी ने धमकी भरा खत लिखा। ये खत उनकी कार में छोड़ा गया था। पत्र के साथ एक खाली कारतूस भी रखी गई थी। पत्र में लिखा था "कायदे से रहो वर्ना तुम्हारे होश को ठिकाने लगा देंगे।" लंबे समय बाद इमेल-व्हाट्स एप के दौर में खालिस पत्र परंपरा को ज़िंदा रखने की कवायद करनेवाले इस धमकीबाज़ के प्रति दिल श्रद्धा से भर गया। और दूसरी वो व्यक्तिसेवा भी दीगर थी जिसमें धमकीबाज़ ने साहब के होश ठिकाने लगा देने की बात कही थी।
होश बहुत लंबे समय से ठिकाने लगाने की परंपरा भी अब करीब-करीब विलुप्तप्राय है। अब तो बहुधा व्यक्ति को ठिकाने लगा देने का प्रयोग सीधे कर लिया जाता है। मैं तो इस बात का पक्का हिमायती हूं कि बहुत सारे लोगों के होश अगर ठिकाने लगा दिए जाएं तो समाज को भला हो जाए। पर यहां एक सवाल पैदा होता है कि ये होश ठिकाने लगता कैसे है। धमकीबाज़ जब अपने होश ठिकाने लगाने की विशेषज्ञता का चि्टठी में ज़िक्र कर हो तो उसके पहले उसे इस बात का खुलासा भी करना चाहिए कि अमुक-अमुक सूत्रों या लक्षणों के ज़रिए इस बात की पुष्ट होती है कि आपका होश अपने ठिकाने से निकलकर इधर-उधर चला गया है।
....और फिर एक और खबर इसी दिन सामने आई कि कुछ हिंदुवादियों ने आगरा में धर्म परिवर्तन (भ्रम में रखकर) कराने का एक अद्भुत विराट और विलक्षण कार्य किया। ये अचानक इन वीरों को हुआ क्या? मैं ये समझ न सका। कल तक तो माथा भर तिलक पोत कर बड़ी-बड़ी लाल आंखे लिए चंदा वसूली करते थे। इनका होश ठिकाने पर है या कि अब मूल ठिकाने से कहीं और निकल गया है। मानक विचलन निकालना ज़रूरी है। क्योंकि इसके बाद ही ये तय हो पाता है कि वापस होश को मूल स्थान पर लाने के लिए किस पद्दति की आवश्यकता पड़ेगी। इसमें पत्र व्यवहार से लेकर कानून व्यवहार और ठोंक बजावन व्यवहार तक की अचूक पद्धतियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। होश ठिकाने पर लाने की पद्धति पुरानी है पर है कारगर...।

Friday, December 5, 2014

बनारस में एक प्रदर्शन


लोहिया जिंदाबाद!!!
जिंदाबाद-जिंदाबाद!!!
राजनरायन जिंदबादा!!!
जिंदाबाद-जिंदाबाद!!!
बोल मोलायम हल्ला बोल
तोड़ जेल, अपराधी खोल
"भाइयों अउर बहनों। ई सांप्रदायिक ताकत सब शांति देश का माहौल बिगाड़ रहा है। हमना कहना चाहते हैं, सुन लो कान खोल के। हम लोहिया, राजनरायन, मिश्र जी संताने हैं। हम हिलेंगे नहीं। डटेंगे यहीं। उखाड़ लो जो उखाड़ना है।"
(तालियां-तालियां-तालियां.....खी...खी...खी...खी....)
लोहिया जिंदाबाद!!!
जिंदाबाद-जिंदाबाद!!!
राजनरायन जिंदबादा!!!
जिंदाबाद-जिंदाबाद!!!
"हमारे खून में समाजवाद है। हमारे कपारे पर समाजवाद है। औ हम समाजबादी लोहिया जी, राजनरायन जी अउऱ पंडित के बलिदान को खाली नहीं जाने देंगे।"
(तालियां-तालियां-तालियां.....खी...खी...खी...खी....)
अचानक माइक से घूम कर धीमे आती आवाज़। - "अरे हरे उधरिया ख़डा हो सारे.....मार देब सरउ बिछला जइबा....."
आवाज़ फिर तेज़ हुई- "हम समाजवाद के लिए जान देने को तैयार हैं"---- "इ पुलिस हमारा कुछौ नहीं बिगड़ा सकती है। हम कुर्बानी देंगे। समाजवादी पाल्टी बांटनेवाली ताकतों को सत्ता में नहीं आने देगी।"
(तालियां-तालियां-तालियां.....खी...खी...खी...खी....)
लोहिया जिंदाबाद!!!
जिंदाबाद-जिंदाबाद!!!
राजनरायन जिंदबादा!!!
जिंदाबाद-जिंदाबाद!!!
बोल मोलायम हल्ला बोल
तोड़ जेल, अपराधी खोल
"हां तो हम कह रहे थे। समाजवादी समाजवाद के नाम पर जान दे देगा। देगा कि नहीं देगा???"
"देगा...देगा...देगा.....बोल मोलायम हल्ला बोल..."
(तालियां-तालियां-तालियां.....खी...खी...खी...खी....)
"समाजवादी समाजवाद के नाम पर जान दे देगा।"
धड़ाम-धड़ाम!!!
भाग रे रजुआ भयल धमाका....!!! पुलिस चलउले गोली हौ....
(पता चला किसी बच्चे ने सुतली बम फोड़ा था....नेता जी मय कार्यकर्ता भाग खड़े हुए थे....)

Monday, November 24, 2014

पत्रकारिता


“कुतुबुद्दीन ऐबक को जानते हौ ?”
“हां क्यों नहीं, दरअसल कुतुबमिनार में एक ऐब है उसे ही उर्दू में कुतुबुद्दीन ऐबक कहते हैं।”
“खुदा खैर करे, अबे यही पढ़ते हो तुम ?”- “यही जानकारी रखकर पत्रकार बनोगे?”- जमील चचा आग बबूला होते हुए बिसंभर शर्मा पर चढ़ गए।
“चचा किस दौर की बात कर रहे हो”- गुटखा फाड़के मुंह में झाड़ते बिसंभर बोले
“अरे पढ़ना लिखना पहले हुआ करता था आज का युग सूचना क्रांति का युग है। इंटरनेट में गूगल गुरू बइठे हैं, टन्न से टाइप करो अउर दन्न से जानकारी मिलैगी फ्री फंड में। आपकी सलाह की तरह”
“बेटा बिसंभर तुम तो खरपत्तू साव के बगल में गर्मी में बर्फ का गोला और जाड़े में गर्म छोला की दुकान खोल लो, कसम से बता रहे हैं बहुत कमाई होगी पत्रकारिता-वत्रकारिता तुम्हारे बस की बात नहीं है।”- चाय की खाली गिलास मेज पर रखते जमील चाचा बोले।
जमील चाचा की बात बिसंभर को लग गई। बिसंभर ने चचा को हाथ से रुकने का इशारा किया, चाय की दुकान के बाहर जाकर दो-चार किलो गुटखा थूका और फिर हाजिर हुए। बोले- “चचा हम तो एक सेर पर यकीन करते हैं”-
“खुदही को करो इतना बुलंद कि खुदा खुदै आकर पूछे बताऔ राजा क्या है।”
चचा इस बार अपनी हंसी रोक नहीं पाए और ठठा कर हंसने लगे।
“बिसंभर शेर तुम्हारा है क्या बे?”
“क्या चचा आप भी हिंया तो मत खिचिंए कहां हम ‘क्रिमिनल पत्रकारिता’ के ख्वाब वाले लोग” मेज पर कुहनी टिकाते बिसंभर आगे बोले- “देखिए चचा हमको बनना है ‘क्रिमिनल रिपोर्टर’ ”
“क्रिमिनल रिपोर्टर कि क्राइम रिपोर्टर बे?” टोकते हुए चचा ने पूछा।
“हां हां वही।” – बिसंभर खिझियाते हुए बोले
“अब देखिए पत्रकारिता पेन घिसने और इतिहास रटनेवाली रही नहीं अब बस वर्तमान समझिए काम हो गया” – दो कप चाय का इशारा करते बिसंभर आगे बोलते गए।
“क्राइम रिपोर्टिंग में तो बस आपको एक माइक पकड़ना है चैनल का...और मौका-ए-वारदात पर दनदनाते हुए पहुंच जाना है।...और बस सवाल खड़े करने शुरू कर देने हैं।” – बिसंभर कंधा उचकाते बोले
“अबे सवाल न हुआ खटिया हो गई” – चचा तुनकते हुए बोले “पढ़ोगे लिखोगे नहीं तो सवाल क्या खाक पूछोगे?”
"आपकी सुई भी चचा घूम फिर कर वहीं अटक जाती है, पढ़ाई...हूं।“
“घटना कोई हो सवाल तो वही रहते हैं न?”
“जैसे?” – चचा ने सवाल पूछा
“जैसे कि पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है... वगैरह...वगैरह...।” –बिसंभर एक सांस में बोलते गए।
चाय आ गई थी, बिसंभर पर नज़रे गड़ाए जमील चाचा ने एक घूंट हलक के नीचे उतारा। बिसंभर को चाय से मतलब नहीं था वो बोल रहे थे-
“चचा देखिएगा दरोगा से लेके पुलिस का बड़ा से बड़ा अधिकारी हमारी जेब में होगा। आप कहेंगे एसपी से मिलना है...हम खलीता में हाथ डाल के निकालेंगे अउर बोलेंगे इ लौ...मिल लौ...”
बिसंभर को समझाना बेकार था। चचा ने फटाफट चाय खतम की और बिसंभर के कंधे का सहारा लेकर उठते हुए बोले- “गुरू हम निकलेंगे अब दफ्तर जाना है।” बिसंभर को लगा चचा कनविंस हो गए, बड़े अदब के साथ प्रणाम किया और बाहर तक उनके साथ निकले भी। सीढ़ियां उतर कर जमील चाचा थोड़ा रुके फिर बिसंभर की तरफ घूमते हुए बोले- “गुरू एक बात बताओ जिस दिन गूगल गुरू गड़बड़ा गए...या अटक गए तब क्या होगा अखबार न निकलेगा, टीवी पर न्यूज़ न चलेगी तब कौन बताएगा इतिहास?”
बिसंभर को बात न समझ आनी थी न आई। पत्रकारिता का कोर्स पूरा करते ही इंटर्नशिप का मौका भी आया। बिसंभर जुगाड़ू प्रवृत्ति के थे सो जुगाड़ ने काम किया और एक चैनल में हो गए इंटर्न। छह पॉकेट का पैंट और आठ पकेटिया हाफ जैकेट झाड़े बिसंभर यहां से वहां दौड़ते, ये बाइट वो पैकेज करते समय बीत रहा था। मन में तरंग उठती माइक, कैमरा...कभी-कभी खुदै एक्शन बोल के चालू हो जाते गलियारे में। जब कोई प्रोड्यूसर उन्हे बाइट या पैकेज कटवाने के लिए देता तो तन-बदन में आग लग जाती। कब्ज़नुमा मुंह बना लेते। मन ही मन बोलते “कमबख्त मेरी क्रिमिनल योग्यता को ये परख ही नहीं रहा।”
कभी-कभी तो मन इतना बहकता कि लगता खड़े हो जाएं न्यूज़ रूम में और चीखने लगें-
“पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है...
कुल मिलकार कसमसाते काम चल रहा था। दीन दुनिया से बेपरवाह, खबर देखते न खबर समझते, बस हिंया बैठते...कोई उठा देता तो हुंआ चले जाते....।
जुगाड़ यहां भी खोज ही रहे थे कि सही साट कोई मिले और क्राइम की दुनिया में वो कदम रख ही लें। इस बीच फुटकर काम निपटाते रहे। गूगल को वो बड़े काम की चीज़ मानते उनकी नज़र में अकेला वही था जो ज्ञानी था। बाकि उनकी नज़र में अज्ञानी और पुरानी मीडिया के कलम घिस्सू पत्रकार थे। हां एंकर उनकी नज़र में गूगल के बाद दूसरा ज्ञानी था। और उनके मुताबिक उत्तर आधुनिक मीडिया का प्राणी था। पर एक दिन एक घटना घटी-
हुआ ये कि एक प्रोड्यूसर ने उन्हे गांधी जी की तस्वीर निकालने को कहा। इस काम में तो गुरू माहिर थे। टप से गूगल खोला और टाइप कर दिया गांधी...। पर इस बार गूगल गुरू ने गच्चा दे दिया। गांधी टाइप करते ही जितने गांधी उपनाम वाले लोगों की फोटो गूगल गुरू की स्मृति में अंकित थी सभी स्क्रीन पर अवतरित हो गए और लगे मुस्कुराने। बिसंभर परेशान, बेड़ा गर्क इतने गांधी किसको निकालें। सोचा एक्कड़-बक्कड़ करके चुन लें...पर उसमें भी तो समय लगता पचासों फोटो थी।
समझ नहीं आ रहा था कि किसे मौका-ए-वारदात पर शिनाख्त के लिए बुलाएं। आखिरकार थक हारकर प्रोड्यूसर को ही आवाज़ दी। प्रोड्यूसर आए तो समस्या रखी- “सर, यहां तो कई गांधी दिख रहे हैं इसमें से गांधी जी कौन है?”
प्रोड्यूसर को लगा कि वो मज़ाक कर रह हैं। खीझते हुए बोला- “मज़ाक मत कर जल्दी ‘सेव’ कर पैकेज में लगाना है”
“अरे सर, मुझे सच में नहीं मालूम”
“तू गांधी को नहीं पहचानता”- इस बार प्रोड्यूसर का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
प्रोड्यूसर के लहज़े से खिन्न बिसंभर जी कंधा उचकाते बोले- “कोई ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति हर किसी को जानता हो”
प्रोड्यूसर महोदय हत्थे से उखड़ रहे थे, उन्होने एक तस्वीर को क्लिक किया और खट से एक तस्वीर स्क्रीन पर आई। इस तस्वीर में गांधी और नेहरू एक साथ बैठे थे। उन्होने बिसंभर से पूछा – “इस तस्वीर में कौन-कौन है?”
बिसंभर को ये सवाल थोड़ा आसान लगा जवाब दिया- “ये एक नेता हैं और उनके साथ कोई गांववाला बैठा है।”
प्रोड्यूसर साहब सर पीटते हुए भाग खड़े हुए। जब लौटे तो उनके साथ इनपुट संपादक तिवारी जी थे। कौन है, कहां है कैसा है...छोटे वाक्यों के साथ उनकी आमद हुई। जैसे ‘एलियन’ पकड़ में आ गया हो। बिसंभर हाथ छाती से बांधे, सीना फुलाए खड़े थे।
“क्यों बे तुम गांधी जी को नहीं जानते? ” - तिवारी जी ने आते ही सवाल दागा।
“एक होते तो जान लेता हियां खचिंया भर पड़े हैं। ” बिसंभर हास्यरस के पुट में बोले।
अब तक तिवारी जी बिसंभर गुरू का टेस्ट लेने पर आमादा हो चुके थे। पूछा- “ इ बताओ भारत का प्रधानमंत्री कौन है?”
“सरदार हैं कोई” – कॉन्फिडेंस से लबरेज बिसंभर बोले।
“कौन प्रकाश सिंह बादल?” – तिवारी जी ने पूछा।
"जी,...बा..द..ल...हां हां वहीं आसमानी रंग की पगड़ी बांधे जो रहते हैं” – बिसंभर बोले
न्यूज़ रूम में खुसुर-फुसुर शुरू हो चुकी थी। कुछ इंटर्न नेट खोलकर भारत के राष्ट्रपति से लेकर, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, मुख्य न्यायाधीश आदि आदि तक का रट्टा मारना शुरू कर चुके थे। पाया गया कि कुछ प्रोड्यूसर स्तर के लोग भी कनखियों से स्क्रीन टीप रहे थे।
जो गांधी को जानते थे वो असाधारण टाइप साधारण मुंह बनाते बोलते फिर रहे थे, बताइए गांधी जो को नहीं जानते, चले हैं पत्रकारिता करने। क्या हल्की जेनेरेशन आ गई है। कुछ तो गांधी जी के साथ आई दूसरी फोटो का उंचे सुर में नाम ले ले कर प्रशंसाभिलाषि हुए जा रहा थे। कुछ ने तो आपस में गांधी की आत्म कथा की समीक्षा और गांधीवाद पर गंभीर विमर्श तक शुरू कर दिया था।
लेकिन तिवारी जी भरे हुए थे। गोरा चेहरा तवे की तरह तमतमा रहा था उसपर से लाल रंग की टीशर्ट तवे को लहका रही थी। बिसंभर स्थितिप्रज्ञ थे। उनको अभी भी लग रहा था कि भइया गांधी क्या कहीं के डीएसपी हैं या एसपी हैं कि हमारा जानना ज़रूरी है।
और हैं तो हों, एक बार ‘क्रिमिनल रिपोर्टर’ बन गए तो वो रहेंगे तो खलीते में?
लेकिन तिवारी जी सामान्य ज्ञान परीक्षण से बाज आनेवाले नहीं थे। सवाल दागा- “वित्त मंत्री क्या होता है?”
“वृत्त मंत्री यानि सर्किल अफसर।” - इस बार बिना देर किए बिसंभर ने जवाब दिया था।
“रक्षामंत्री कौन है देश का?”- तिवारी जी खीझते हुए तेज़ आवाज़ में बोले।
“बजरंग बली”
“तुम मज़ाक कर रहे हो?” तिवारी जी ने चैतन्य बिसंभर जी की आंखों में आखें गड़ाते पूछा।
“मज़ाक?... मज़ाक तो आप कर रहे हैं। मेरा ‘एरिया ऑफ इंटरेस्ट क्राइम’ है और आपने मुझे ‘पॉलिटिक्स’ में उलझा दिया है।”
बिसंभर बोलते गए- "सर, क्राइम में सवाल का जवाब थोड़े ही देना होता है, वहां तो सवाल उठाना होता है।”
“पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है...
“एसी साहब जवाब दिजिए”
“डीजीपी साहब जवाब दिजिए”
बिसंभर नॉन स्टॉप बोलते गए। आखिरकार मन की मुराद पूरी हो गई थी। उन्हे अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल ही गया था। लोग सन्न रह गए न्यूज़ रूम में ‘पिन-ड्रॉप’ ‘साइलेंस’ हो गया। तिवारी जी की जनरल नॉलेज परीक्षण शिविर में सवालों की आमद अचानक रुक गई थी। वो भौचक थे...भौचक तिवारी जी की तंद्रा अचानक टूटी। उन्होने बिसंभर जी के कंधे पर हाथ रखा...दूसरे हाथ से उनके बैग को उठाया...और बाहर गेट तक ले आए...। बड़े शांत भाव से बिसंभर जी को समझाया-“भाई मेरे, भगवान के लिए पत्रकारिता को बख्श दें। पहला क्राइम आपने पत्रकारिता में हाथ आजमाने का फैसला लेकर ही कर दिया अब मामले को यही रफा-दफा करें, इसमें बने रहने का दूसरा बड़ा क्राइम न करें कृपा होगी। अलविदा।”...लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती, कालांतर में बिसंभर शर्मा कई-कई न्यूज़ चैनलों में जुगाड़ पद्धति और चापलूसी मंत्र के ज़रिए उच्च पदों तक पर शोभायमान हुए। लोग उनके बारे में बतियाते कि उन्हे ‘चापलूसी सिद्ध’ थी। गांधी को न जानने वाले बिसंभर के ऊपर गांधी बाबा की कृपा अनवरत बनी रही वो अक्सर उनकी जेब में ठुंसे पाए जाते। जैसे-जैसे समय बीतता गया शर्मा जी ‘दलाली संहिता’ के आचार्य होने के साथ आगे चलकर ‘विद्यावाचस्पति’ भी हुए।

खुलासे ही खुलासे


त्यौहार का मौसम है नया माल गिरा है। गद्दे ही गद्दे, चादरें ही चादरें, पर्दे ही पर्दे की तर्ज़ पर (दिल्ली वाले इस तरह की बाजारू टैग लाइन को ज्यादा समझते हैं) अब चल रहा है खुलासे ही खुलासे। धकाधक माल बिक रहा है। बुकिंग शुकिंग का चक्कर नहीं है आओ और पाओ वाला हिसाब है। केजरीवाल फैक्ट्री का माल है एक दम टकाटक। जो पसंद आए ले लो...खुर्शीदवाला माल ज्यादा बिका...बिक ही रहा था कि एक और ‘इक्जाई’ माल गिर गया वाड्रा का। भीड़ वहां भागी मोलभाव कुछ भी नहीं है फिक्स दाम। ‘सब धान बाइस पसेरी।‘ जो चाहो उठा लो। क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा...कैश दो थइला में ठूंसो और बढ़ लो। वाड्रा की डिमांड थी...इस बीच कटपीस आ गया...अशोक खेमका का...वो भी बिका है पर उतना नहीं। खेमका माल था ज़बरदस्त लेकिन पता नहीं क्यों नहीं बिका। अब गडकरी माल आया है। वाह क्या माल है आते ही छा गया। पर क्वालिटी वैसी नहीं है जैसी खुर्शीद और वाड्रा माल की थी। खुर्शीद वाला तो मलाई था। एकदम खालिस जर्रर से गिरनेवाला। कैप्टन कुक नमक की तरह।

जनता भाग रही है। भीड़ कभी इस दुकान तो कभी उस दुकान हबुआई हुई है। खुर्शीद जी दबंग सलमान हो गए बोले- ‘इतना हमारा प्रोडक्शन थोड़े ही है’। बेनीप्रसाद ने भी हामी भरी- ‘भईया और फैक्ट्रियों को भी देखो। कहां छोटी मोटी फैक्ट्री में पड़े हो।‘
ऑफ द रिकॉर्ड बातें हो रही हैं। कानून मंत्री कानूनी और अकानूनी तरीके से डीलर केजरीवाल को हड़का रहे हैं। कहते हैं माल हमारा बेच रहे हो ब्रांडिग तुम्हारी हो रही है। ये गलत है आओ फर्रुखाबाद और फिर लौटकर दिखाओ। न जाने क्यों ये डायलॉग कहीं और भी सुना सा जान पड़ता है। किसी धार्मिक ग्रंथ में अरे हां याद आया जब हनुमान जी उड़े थे लंका यात्रा के लिए तो रास्ते में सुरसा नाम की एक राक्षसी मिली थी। उसने कहा था मुंह में आओ और निकल कर दिखाओ निकल गए तो ठीक न निकले तो? तब क्या…? कुछ नहीं हो गया हैप्पी बड्डे।

इलेक्ट्रानिक मीडिया का काम सराहनीय भी है और कराहनीय भी। धकाधक न्यूज़ आ रही है। खुलासे ही खुलासे। सुबह-दोपहर खुलासा रात में राष्ट्र की अधोगति से चिंतिंत पत्रकार। ताबतोड़ चले आ रहे हैं। यही मौका है राष्ट्र के नाम संदेश हम भी दे दें फिर मौका मिले न मिले। बाल की खाल निकालने के लिए कई तरह के औजार हैं साथ में। कुछ एक तो परमानेंट एंकर को गिफ्ट भी कर चुके हैं। देखो हम ने आएं तो इससे निकालना ये वाला इस्तेमाल किया हुआ है बेहतरीन खाल निकालता है। हम थोड़ा बिजी रहेंगे उस वक्त। जैसे ही फ्री हुए तुम्हारे यहां गिर जाएंगे। तब तक इसका इस्तेमाल करना। एंकर मेकअप ज्यादा लेता है। पर बाल बिखरे रखता है। फील आना चाहिए राष्ट्रीय हड़कंप का। चर्चा बगैर खर्चा चल रही है। नेता आए हैं जिनकावाला माल गिरा है वो भी और वो भी जो फैक्ट्री को ब्लैकलिस्ट कराने के चक्कर में हैं। और केजरीवाल ब्रांड वाले भी हैं। खतो-किताबत के हिसाब-किताब के साथ। वरिष्ठ पत्रकार भी बुलाए गए हैं। पर वरिष्ठ पत्रकारों बोलने की इजाज़त नहीं है। वो तभी बोलेंगे जब नेता न पहुंचे हों। जब आपके हाथ से तर्क छूटने लगे। या हुंकारी भरवानी हो। इसमें थोड़ा बोलने की इजाज़त है ज्यादा नहीं...फुटेज मत खाइए प्लीज़। बस इतने से संतोष करिए की हम चार कॉलम की आपकी गच्च तस्वीर स्क्रीन पर साट दिए हैं पर्मानेंटली। और कुछ पुछुंगा तो हमारी ओर ही बैठिएगा।

महंगाई गुम हो गई। पेट्रोल का दाम घटा फिर बढ़नेवाला है। गडकरीवाला माल सैफ-करीना की शादी के एक दिन बाद गिरा है। एक दिन पहले तक बाज़ार में सैफ-करीना की शादी की चर्चा थी। एक राष्ट्रीय चैनल सैफ-करीना की शादी को खारिज करवाने पर तुला था एक विंडो में से ‘पंडी जी’ झांक रहे थे तो दूसरी तरफ से ‘मौलवी’। तीसरी खिड़की में बार-बार बीस सेकेंड का शॉट चकरिया रहा था। एक महिला था गाड़ी से उतरती थीं और अटक जातीं थीं। फिर वही...फिर वही। और मुल्ला-पंडित भी वही बतिया बार-बार कह रहे थे। वही फिर वही...।

एंकर परेशान एक घंटा गलथेथरई करनी है करे क्या। भला हो मेकअप का चेहरे का उड़ा रंग भी छुपा लेता है। रिपोर्ट चल रही है सैफ-करीना की शादी का मैन्यू चैनल बता रहा है। शाही कबाब, टिंडा कबाब, पिस्ता-बादाम की खीर...वगैरह वगैरह। थैंक्स टू गूगल गुरू। फोटो सारी मिल गईं व्यंजनों की। वैसे प्रोड्यूसर ने इसमें कुछ अपना भी आइटम डाला है। लाख कोशिश कर ली चैनल ने, मौलवी साहब गुर्राते रहे ‘हराम-हराम’ पंडी जी कहते रहे हैं- ‘राहु की महादशा है शनि की दृष्टि है शादी टूट जाएगी मत करो...।’ लेकिन कमबख्त सुने कोई तब तो। शादी हो गई। खैर चैनल ने तो अपना पत्रकार धर्म निभाया। टीआरपी के जानकार कृष्ण हैं कहते हैं कर्म करो फल की चिंता मत करो। टीआरपी न आए तो फिर जिसको धरना हो...धरो।

तारीख डकाते-डकाते केजरीवाल नया माल गिराने की तारीख 17 मुकर्रर कर पाए। नहीं...। सोलह को तो स्लॉट ही नहीं था। सब बेगानी शादी में अब्दुल्ला बने बैठे थे। अब आइए। दो-दो हाथ हो जाए। अच्छा ये बताइए माल अच्छा है न? बिकेगा तो? वैसे आजकल भ्रष्टाचारवाले माल की डिमांड है मार्केट में। बिकेगा खूब बिकेगा।

Monday, November 17, 2014

सत्य की खोज

वो सत्य की खोज से अभी लौटे हैं। करीब एक पखवाड़े बाद। उनके चेहरे पर सत्य का तेज है। जैसे अभी फेयर एंड लवली  मल के आए हों। ग्लो परमानेंट है। सत्य परमानेंट होता है टेंपोरेरी नहीं। सत्य कई तरह के होते हैं। अर्ध सत्य, पूर्ण सत्य, पाव भर सत्य, छंटाक भर सत्य आदि इत्यादि। उन्होने बताया सत्य सापेक्ष है। जो हो रहा है वो 'परपेचुएल' है। मैं उनकी बात काट नहीं सकता क्योंकि सत्य की खोज करने वाले की बात काटी नहीं जाती। ये एक तरह का रिस्क भी होता है कभी-कभी बात काटने पर सत्य की खोज करनेवाला या उसके अनुयायी आपको काट लेते हैं।
पर मैं शिद्दत से मानता हूं कि उन्होने सत्य की खोज की होगी। उन्होने पप्पू की चाय दुकान पर अपने उधार खाते को आगे बढ़ाते कुल जमा एक चाय का ऑर्डर देते बताया कि आखिरकार सत्य मिल गया। मैने पूछा कहां, वो तुनककर बोले गोदौलिया से लक्सा जाते दीना चाट भंडार के सामने वाले मंढउल (मेनहोल या गटर) में। अरे बकलोल सत्य ऐसे थोड़े ही मिल जाता है। उसकी कोई नियत जगह थोड़े ही होती है। उसके लिए लगातार चलना पड़ता है, तपस्या करनी पड़ती है। हिमालय की कंदराओं में मिलने के दावे तो होते हैं पर एक्यूरेट कोई नहीं बता सकता किस कंदरा में है। हर कंदरा में जाकर आजमाना पड़ता है। यहां नहीं मिला तो दूसरी में जाओ। दूसरी में नहीं तो तीसरी में। ऐसे तप करना पड़ता है तब जाकर मिलता है।
मुझे खुद पर लज्जा आई। सही है सत्य इतना आसानी से मिलता तो लोग घर परिवार छोड़ कर सत्य की खोज में क्यों निकलते। नज़दीक ही कहीं गड्ढा खोद निकाल लेते। दरअसल सत्य हर किसी को नहीं मिल सकता। कुछ लोग कहते हैं भूख, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, बच्चों की मौत, बदहाल अस्पताल, सड़ा सिस्टम ये भी तो सत्य है। अब मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आता है। कितना छोटा सोचते हैं वे। वो कभी उनके जैसे सत्य खोजने वाले नहीं हो सकते।
तो आखिरकार वो सत्य खोज लाए। मैने पूछा गुरूदेव खोजा कैसे, कहां रखा है दिखाइए।
उन्होने ने गहरी सांस ली। उनके चेहरे पर असीम शांति उभरी। आंखे बंद कर उन्होने ध्यान किया। ध्यान आंखे बंद करके ही किया जाता है। आंखे खोलकर ध्यान करने से दूसरे ओछे सत्य टकराते हैं। छंटाक भर वाले। वो आंखे बंद कर कुछ देर बैठे रहे। इससे एक बात और पता चली कि सत्य कभी खुली आंखों से नहीं दिखता। उसके लिए आंख बंद करनी पड़ती है। करीब 5-7 मिनट के मौन के बाद उन्होने आंखे खोलीं। सत्य सतत है, सत्य शाश्वत है, सत्य सापेक्ष है, सत्य सरल है। मन फिर दुविधा में हुआ मैने पूछा गुरू क्या 'छेकानुप्रास' (जब वर्णों की आवृत्ति एक से अधिक बार होती है तो वह छेकानुप्रास कहलाता है।) वो करीब-करीब गुर्राते हुए भकभकाए। सत्य जानो नहीं महसूस करो।
मैने पूछा- कैसे
वो बोले सत्य दरअसल वो नहीं जो दिखता है।
पर बच्चे की फीस जो जमा करनी है, नहीं तो नाम कट जाएगा, ये भी तो सत्य है- मैने अचकचाते पूछा
यही तो दिक्कत है, ये सत्य होकर भी सत्य नहीं ये पाव भर सत्य है- वो गंभीर होते उवाचे
मेरी आंखे चमकीं, मैने निवेदन किया अब आधा किलोइया और पूर्ण सत्य पर प्रकाश डालिए।
वो रहस्यमयी मुस्कान रखे बुदबुदाए- उंह जो सत्य जानने में ज्ञानियों को सदियां लग गईं वो सेकेंड में जानेगा
मैने न सुनने का अभिनय करते फिर सवाल दागा- प्रकाश डालिए गुरू
आधा सत्य ये है कि मैने पप्पू से एक चाय मंगाई है, पर उसका आधा सत्य ये है कि इस एक चाय में दो लोगों का हिस्सा लगेगा जो कि मेरे ज़ेहन में पहले से ही चल रहा है।
ओहो, मतलब एक सत्य वो जो दिखा और दूसरा आधा वो जो नहीं दिखा- मैने चमकते हुए कहा
बिल्कुल....
तो पूर्ण सत्य ?
पूर्ण सत्य ये कि ऐसा लगता है कि मैने चाय मंगाई तो पैसे मैं दूंगा, पर ऐसा नहीं है सत्य कुछ दूसरा है
क्या ?
ये बहुत बहुत गूढ़ है
वो तो है पर जानना चाहता हूं गुरुवर
तू नहीं समझ पाएगा, मृत्युलोक के प्राणी
आप समझाएंगे तो समझ जाउंगा प्रभू
तो सुन
सुनाइए...
सत्य संभाल पाएगा
आपके आशीर्वाद से..
कठिन है
होने दीजिए
देख डिगेगा तो नहीं
बिल्कुल नहीं
चूकेगा तो नहीं
सवाल नहीं..
तो सुन
सुनाइए
ये आधा किलोइया सत्य है कि एक चाय मैने मंगाई है, ये भी आधा ही सत्य है कि तुझे लगता है मैने मंगाई है तो मै ही पैसे चुकाउंगा।
तो पूर्ण सत्य क्या है प्रभु....
पूर्ण सत्य ये है कि पपुआ को मैने पहले ही कह रखा है कि जिस किसी के साथ बैठकर मैं चाय मंगाऊं चाय का पैसा उसके खाते में ही जोड़ा जाए। - ये कहते वो ठठा कर हंसे और हंसते गए। ये हंसी सत्य की थी। सत्य जीता था।
मैं निष्कर्ष पर पहुंचा, यकीनन सत्य को समझना कठिन है। जो दिखता है जो आप देख पाते हैं सत्य वो नहीं, जो नहीं दिख रहा सत्य शायद वो है।

कुछ दृश्य...

दृश्य 1.
बस खचाखच है। पसीना गमक रहा है। बस की फर्श पर मूंगफली के छिलकों की नर्म कालीन बिछी है। चचा अभी चढ़े हैं। अतर की खुशबू लिए उन्होने खुद को ठूंसा है। बुरक़े में बेगम लस्त है। "एही बस में चलियो???"- "हां तो आउर का?"... "दुसरकी बस दू घंटा बाद अइए...।"... "आगे बढ़ो-आगे बढ़ो कर" पान गुलाए दबंग टाइप फूहड़ कंडक्टर चिल्लाता है। बनारस से गाज़ीपुर की ये यात्रा दुर्गम है।
अबे क्योटो के ख्वाब पर जल्दी चिकोटी काटो। जो खिड़की के पास बइठा है वो शीशे से चिपक चुका है। जो ड्राइवर के पास आगे खड़ा है वो ड्राइवर के एक ब्रेक पर सामने का शीशा फोड़ जान न्यौछावर करने पर तुला है। सब चल रहे हैं। किसी ने कहा- "अरे बढाओ अब केतना पब्लिक भरोगे?" जवाब आया- "जब तक सांस लेने के लिए तुम्हारा पेट जगह लेता रहेगा।"
झुर्री यादौ अभी पीतल की परात लेकर चढ़े हैं। उनकी परात ने कई लोगों की गर्दन आजमाई है। जिन लोगों ने आपत्ति की उसको झुर्री ने चेता दिया है सपा सरकार अपना काम कर रही है सीमा में रहें। जो लोग क्रांतिकारी थे उनकी क्रांति दमघोंटू माहौल और सियासी तस्वीर में घुल गई है। बनारस टू गाज़ीपुर का सफ़र बॉबे टू गोवा वाला नहीं है...। बस निकलपड़ी है...हचक-हचक कर चल रही है। इधर बस लोगों को लचका रही है उधर टनटनाता बाजा गा रहा है "कमरिया करे लापालप..."
दृश्य 2.
घाट लकलक हैं। गंदगी यहां नहीं दिख रही। रंग बिरंगे झंडे दिख रहे हैं। पंडे त्रिपुंड लगाए बैठे हैं। गलचउर जारी है। पन्नालाल पान लपेट रहे हैं। भइयालाल खिखिया रहे हैं। रामदरस कान पर जनेउ चढ़ाए सर-सर सीढ़ी चढ़ रहे हैं। इसबार किसी भी शंका का निवारण करने के लिए घाट पर जगह नहीं, 'बम पुलिस' (सुलभ शौचालय) ही अंतिम सहारा है। पतालू लुंगी-लंगोट त्याग चुके हैं। स्याह शरीर अब 'कपरी' (कैप्री) के हवाले है। पतालू घाट के गाइड कम नाविक कम फोटोग्राफर हैं। अंग्रेजी जापानी और जर्मन आपको सिद्ध है। मल्टीटैलेंट का ज़माना है। लुंगी क्यों त्यागी? पूछने पर मचल के कहते हैं कोटो (क्योटो) में के लुंगी पहिनला ? (क्योटो में कौन लुंगी पहनता है)...एक समय था जब पतालू से किसी अंग्रेज ने घाट पर जमा गंदे पानी की ओर इशारा करते पूछा था व्हाट इज़ दिस? तो पतालु ने जवाब दिया था- "दिस इज एनदर गंगा छलक के कम फ्राम दैट साइड"। अब न गंदगी है न छलकी गंगा...हां गंगा में सारी गंदगी अभी भी है। पतालू के बेटे पुदीना से पूछा - क्या बेटा काशी चाहिए या क्वेटो...? पुदीना ने इतराके कहा - क्वेटो!!!!!

"मेरा वाला क्रीम!"


शायद आपको याद हो टीवी पर पेंट का एक विज्ञापन आया करता था, जिसमें एक महिला अपने घर के लिए अपनी पसंद के क्रीम कलर को खोजती रहती थी और जैसे ही उसके पसंद का रंग दिखता था वो चिल्लाती थी "मेरा वाला क्रीम।" आजकल "ये मेरा वाला क्रीम विचारधारा" फेसबुक की आभासी गली और मुहल्लों में घूम रही है। अलग अलग मुहल्ले के लोग अलग अलग जगहों पर मिलते हैं, भिड़ते हैं, चिढ़ते हैं और धारा बस एक होती है "मेरा वाला क्रीम"
दक्षिणी भक्त "साहेबवाली" क्रीम को लेकर चकमक है। बाएंहत्था कॉमरेड मार्क्स-लेनिन क्रीम को पोत देने को आमादा हैं। कांग्रेसी गांधी क्रीम को लेकर तैयार हैं। और एक और हैं नए आपिए...जिनके पास केजरी क्रीम है। इस "मेरा वाला क्रीम" विचारधारा ने आलोचना के लिए कोई गुंजाइश छोड़ी नहीं है। मजाल क्या है आप बोलिए। साहेब को बोलेंगे विकासविरोधी कहते आपको भकोट (नोच लेने का और बेहतरीन तरीका, थोड़ा एडवांस वर्जन) लिया जाएगा। लेटेस्ट गांधी वर्जन पर सवाल खड़े करेंगे तो सांप्रदायिकता के गड्ढे में ढकेल कर मिट्टी से पाट देने की भरसक कोशिश होगी। वाममार्गी तांत्रिकों से पूछेंगे बिसलरी में पानी क्यों पीते हो, ब्रांडेड कपड़े क्यों पहनते हो, अंग्रेजी में क्यों लबलबाते हो तो...चमक कर खाल में भूसा भर, टांग देने को दौड़ पड़ेंगे। और आपी प्रजाति की तो पूछिए मत क्रांति का तो नहीं मालूम पर भ्रांति यहीं से आएगी इसमें कहीं तो राय नहीं। जनपथ के पचहत्तर रूपए का स्वेटर, 15 रूपए का मफलर लीजिए और बन जाइए आपी। थोड़ी भाषा बदलनी होगी, मसलन, "वो चोर है, फलाना हलकट है, ढेमाका बड़ा भ्रष्टाचारी है, उसका तो पूछो मत एक नंबर का सांप्रदायिक हैं, लुच्चा है " वगैरह वगैरह। हर तरह के सर्टिफिकेट केजरी जी तुरंत साइन कर बांट देते हैं गोया भंडारे की पर्ची बांट रहे हों।
जब आप एक रंग चढ़ाने का सोचते हैं तो वहीं आप कम्यूनल हो जाते हैं। मेरा वाला क्रीम बस और कोई रंग नहीं। ये तो चलेगा नहीं भाई। ये दरअसल "मेरा वाला क्रीम विचारधारा" है। आप हमारे जैसे नहीं, हमारा ही बोलिए। वही रंग लगाइए और सारे घर को बदल डालिए। एक अनुज मित्र ने बड़ा मासूम सा सवाल किया जब सबको गाली दें तो चुने किसको? अव्वल तो ये कि, गाली नेताओं के लिए और उनके कार्यकर्ताओं और झंडाबरदारों के लिए रहने दीजिए। आलोचना की गुंजाइश रखिए। चुनना इनमें से ही है तो चुनिए। जो आपको बेहतर लगे। काम न करे तो अगली दफा मत चुनिए। ऐसा तो है नहीं कि बेगारी लिखवा ली आपने परिवार के लिए। क्रॉप रोटेशन ज़रूरी है भाई तभी लोकतंत्र की ज़मीन फर्टाइल रहेगी।

बाज़ार का "मारीच"


मरीचिका शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई ये मैं नहीं जानता। मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं। पर जब सोचता हूं तो मैं इसे मारीच के इर्द-गिर्द पाता हूं। मारीच रावण के अंकल (मामा) हुआ करते थे। अय्यार (जो भेस बदलने में माहिर होता है, ध्यान दीजिए भेस!!! भैंस नहीं...) थे। मारीच ही थे जिन्होने स्वर्ण मृग का भेस धरकर मां सीता को मोहित किया था। मारीच महाभियानों में ऐसे ही अपनी भूमिका निभाते हैं। भेस बदलकर आते हैं ईश्वर की लीलाओं के लिए पथ तैयार करते हैं और मारे जाते हैं। मारीच मायावी होते हैं, कुटिल भी। कुटिल चाणक्य भी थे पर उनके पास मृग बनने की सिद्धि नहीं थी। सो वो ईश्वर की लीलाओं के लिए रास्ता नहीं बना सके। वो बेचारे एक दलित बच्चे को राजा बनाने औऱ उसे इतिहास में दर्ज़ कराने तक ही योगदान दे पाए।
कभी लगता है मारीच के साथ इतिहासकारों ने कितना बड़ा अन्याय किया। इतना बड़ा योगदान कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। ज़रा फर्ज़ करिए मारीच ने रावण के आदेश को ही मानने से इंकार कर दिया होता- कि देखो रावण भांजे हो ...भांजे की तरह रहो । या कि ऐन वक्त पर "मृग कन्वर्ज़न मंत्र" भूल गया होता। भई मैनुअल गड़बड़ियां तो कभी भी हो सकती हैं। खैर...तो मारीच चूका नहीं, कर्तव्य पर उसने खुद को कसा। लेकिन पुराणपंथियों ने मारीच को ईश्वर को दिए महान लीला के अवसर को साजिशन खत्म कर दिया।
अब न जाने क्यों लगता है, मारीच फिर से अवतरित हो चुका है। बाज़ार के तौर पर वो मरीचिका गढ़ रहा है। इस बार किसी ईश्वर की लीला की भूमिका तैयार करने के लिए नहीं बल्कि पुरातन इतिहासकारों के द्वारा उसके साथ की गई नाइंसाफी का बदला इंसानों से लेने के लिए।

Sunday, November 16, 2014

सफाई की 'अलख'


बलेसर सुरियाए चले आए हैं। सफाई अभियान की तैयारी है। त्रिभुवन बाबू झक्क सफेद कुर्ता अउर बंडी सिलवाए हैं। उनके नाती एकेश्वर एक सफेद टीशर्ट जिसपर "लेट्स डू इट" लिखा है पहिन के अंग्रेजी में दांत निपोर रहे हैं। बिंदेश्वरी पाणे थोड़ी देर से आए हैं। बाबू साहब ने पूछा - "का बिंदेश्वरी देर कइसे भई....?" अरे सुबह मैदान फिरने गया था तो लोटा उहैं छूट गया उसे ही खोजने में देरी हो गई।- बिंदेश्वरी पाणे ने जवाब दिया...।
कुल मिलाकर चहल पहल बढ़ गई है। सफाई का स्थान भी निश्चित कर लिया गया है। बरुना घाट की सफाई होगी। ल लोटा घाट कि काहें...गांव की क्यों नहीं?..."अरे नहीं गांव में सफाई शुरु की तो धूरै-धूर हो जाएगा। पक्का जमीन थोड़ै है।" - किसी ने जवाब दिया। - "संझा हो जाएगी पर गांव सफा नहीं होगा।"
अरे ए हो...अ मीडिया प्रेस-कैमरा उसको बोलाया कि नहीं। अरे हां एकी बोल दिए हैं भाई। एकी कौन? अरे बकलोल, एकेश्वर बंबई में जाकर एकी हो गए हैं। अचानक सनसनी फैलती है। बलेसर को त्रिभुवन बाबू ने बुलाया है। झाड़ू नहीं दिख रही। अरे झाड़ू कहां है बलेसर? बलेसर ने कहा गरीब गुप्ता को बोला है। गरीब गुप्ता की दुकान बंद है। ले लोटा...। हो गई गड़बड़। गरीब गुप्ता कल रात ही अपनी सुसराल साले की शादी में निकल लिए। अब झाड़ू के बिना राधा कइसे नाचेगी?
त्रिभुवन बाबू तांडव कर रहे हैं- " बलेसरा तुमसे कोई काम नहीं हो सकता।"
बलेसर सुन्न पड़ गए हैं...गांव में सन्नाटे सी फैलती सनसनी छा गई है। मीडिया अब कि तब पहुंचनेवाला है। सफाई होगी कैसे? झाड़ू संकट बड़ा है। किसी ने कहा घर की झाड़ू निकाल लो...। महिलाएं लामबंद हो गईं- "खबरदार! झाड़ू खराब हो जाएगी।"
बिंदेश्वरी पाणे ने संकटग्रस्त माहौल में आइडिया फेंका है- " बाबू साहब एक काहे न अलख भर जगा दी जाए?"
अलख भर माने?
माने ये कि सांकेतिक सफाई
ये क्या है भाई...?
अरे वो ये कि कुछ पत्ता-पत्ती घाट पर डाल दी जाए और फिर उसको हाथों से चुन-चुन के कचरा के डब्बा में फेंक दिया जाए...।
वो मारा! क्या आइडिया है।
पत्ता-पत्ती बटोरो रे एकेश्वरा...।
बाबू साहब के नाती एकेश्वर युवा ब्रिगेड के साथ पत्ता खोजने में लग चुके हैं।
चिंघाड़ के कहते हैं...." हे डूड लेट्स बटोरो पत्ता..." खलीहर युवाओं की टोली एकेश्वर के साथ हो लेती है।
सफाई अभियान की "अलख" जग गई है। दूर पगडंडी पर मीडिया की गाड़ियां धूल उड़ाते आगे बढ़ रही हैं। बाबू त्रिभुवन सिंह सदरी झाड़ रहे हैं, घर से शीशा मंगवाया है। पंडित जी मुंह में गुलाए पान की पीक ज़मीन पर फेंक, सुबह निवृत्त करवाने वाले लोटे से कुल्ला कर रहे हैं।

Sunday, August 10, 2014

'ज़मीर' का स्टॉक


तिवारी जी पत्रकार हैं। करीब दो दशक से पत्रकारिता कर रहे हैं। सेना में जाने की योजना थी वैसी ही कद काठी के, और वैसे ही सक्रीय लेकिन आ गिरे पत्रकारिता में। बात करते हैं तो लगता है बटालियन को कमांड ही दे रहे हैं। मुझे उनका सानिध्य अक्सरहां प्राप्त होता है। वो आह्लादित होते हैं या नहीं मैं ज़रूर होता रहता हूं। हमारे बीच हांलाकि कुछ कॉमन नहीं। वो ज्यादा बालते है, मैं नहीं बोलता। वो ठठा के हंसते हैं मैं बमुश्किल खिखिया पाता हूं। वो सक्रीय हैं मैं अलहदी नंबर एक हूं। फिर भी हममें कुछ कॉमन भी है। जैसे हम दोनों ने कल्याण सिंह के शासन की परीक्षा देखी है। (यूपी के लोग समझ पाएंगे, उस वक्त नकल अध्यादेश लागू था पकड़े गए तो जेल, लिहाज़ा परीक्षा टाइट हुई थी और रिज़ल्ट भी टाइटै आया था।) और मेरी नज़र भी एक समय में सेना के कमीशंड ऑफिसर की पोस्ट पर थी। हां इस सबसे ऊपर एक और चीज़ कॉमन है वो है 'जमीर'। हम दोनों को ही ज़मीर अज़ीज़ है।
मुझे याद है जब गिरधारी की चाय की दुकान पर यूं ही तिवारी जी टकराए थे तो उन्होने कहा था, दोस्त तुम्हारी आवाज़ में सच्चाई है और तुम्हारी आंखों में ज़मीर की चमक है। इसे बचाकर रखना। आवाज़ में सच्चाई, आंखों में ज़मीर की चमक? वाह जी, मैं, मैं न हुआ भारत कुमार हो गया, या नाना पाटेकर। खैर तिवारी जी ने बड़ी ज़िम्मेदारी सौंप दी। ज़मीर बचा कर रखने की। मैंने 'जमीर' बचाना शुरू कर दिया। मैने उसके खर्च पर पहले लगाम लगाई। ज्यादा 'जमीर' खर्च होगा तो दिक्कत हो जाएगी। अब साहब 'जमीर' बढ़ने लगा। ये मेरा शगल बन गया। 'जमीर' को संभालना, सहेजना, बचाना।
कुछ दूसरे लोगों को भी पता चला कि मैं ज़मीर रखता हूं तो वो भी आए दरख्वास्त लेकर कि उनका भी रख लिया जाए। जितना भी है उन्हे बड़ा परेशान करता है। इसमें ज्यादातर लोग पत्रकार थे। एक दिन एक भाई साहब आए, बोले- बड़ा परेशान हूं 'जमीर' ने काम खराब कर रखा है जहां था दस साल बाद भी वहीं हूं, उसी तनख्वाह पर। मैने कहा तो आपको बॉस से बात करनी चाहिए। वो बोले- बात तो करूं पर वो है बड़ा बदमिज़ाज़ कुछ भी बोल देता है और फिर 'जमीर' आगे आ जाता है। सुना है आप रखते हैं ज़मीर। मेरी भी रख लीजिए, बड़ी कृपा होगी, देखिए मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं।
मैं आज तक समझ नहीं सका की आखिर 'जमीर' मुसीबत है या संपत्ति। खैर, मैं 'जमीर' सहेज रहा था, नौकरी कर रहा था। लेकिन अब एक दिक्कत होने लगी थी। दो कमरे के सेट में 'जमीर' का स्टॉक ज्यादा होता जा रहा था। पत्नी अक्सर खीझ उठती। एक रात मैने सपना देखा कि मेरे घर पर इन्कम टैक्स की रेड पड़ गई है। आईटी वाले लाट का लाट ज़मीर निकाले जा रहे हैं। पुलिस हथकड़ी चमका रही है। और अधिकारी मुझपर चढ़े जा रहे हैं, आय से अधिक संपत्ति हांए.....क्यों बे टुच्चे से प्रोड्यूसर, अबे कैसे जुटा लिया तूने इतना ज़मीर?
मैं अकबका कर उठ बैठा। हे भगवान कहीं सच में रेड पड़ी तो मैं तो सीधे अंदर....? आजकल 'जमीर' तो वाकई दुर्लभ वस्तु है। कहीं ऐसा न हो पुरातात्विक वस्तु की तस्करी के मामले में ही धर लिया जाऊं। बचैनी बढ़ गई। सुबह होते ही पहले तिवारी जी को फोन लगाया। पर बात हो न सकी। दिल की धड़कन दुरंतो एक्सप्रेस हो गई थी। भाग रही थी हचाक-हचाक। जो काम कई सालों से बीवी की डांट ने नहीं की थी सपने ने कर दिखाया था। अब मैं जल्द से जल्द 'जमीर' के इस ज़खीरे को ठिकाने लगाने की जुगत में था।
ऑफिस पहुंचा तो काम में मन लग नही रहा था। खौफ खाए जा रहा था कहीं रेड पड़ी, तो खुद ही खबर बन जाएंगे। ज़मीर वो भी एक टुच्चे से पत्रकार के पास। इज्ज़त तार-तार हो जाएगी। जग हंसाई होगी सो अलग। सोच ही रहा था कि अचानक सामने से आते हमारे 'अधिकारी' पत्रकार वर्मा जी दिख गए। मुझे लगा साक्षात भगवान मेरी मदद को उतरे हैं। मैं तुरंत उनके पास पहुंचा। नमस्कार किया, उन्होने उड़ता सा जवाब दिया। मैने कुर्सी खिसकाई और उनके पास बैठ गया।...न वो कुछ बोले, न मैने कुछ कहा....दो-चार मिनट यूं ही बैठे रहने के बाद हाथ मलते हुए मैने ही बात की शुरूआत की।
"सर, एक काम था आपसे"
"क्या काम" वर्मा जी ने आंखें तरेरते हुए पूछा
मैने सीधे ही बात रख दी। "सर, दरअसल मेरे पास 'जमीर' का स्टॉक ज्यादा हो गया है। अब डर ये लग रहा है कि कहीं रेड पड़ गई तो आय से अधिक संपत्ति के बारे में धर न लिया जाऊं। आप तो जानते ही हैं हमारी पोस्ट और तनख्वाह के लोगों का 'जमीर' रखना ग़ैरकानूनी है। तो सर अगर आप इसे रखे लें तो मेहरबानी होगी। आप कहें तो मैं खुद आपके पास पहुंचा देता हूं।"
अरे यार, कहां...। वर्मा जी ने सांस छोड़ते हुए कुर्सी पर पीछे टिकते कहा- यार बहुत मुश्किल से तो अपना स्टॉक खत्म कर पाया हूं मैं। गुरू तुमने एक गलती कर दी अगर समय-समय पर इसे निकालते रहते तो दस-बारह सालों में पूरा निकल जाता और ये दिक्कत भी नहीं होती। अब गलती की है तो सज़ा तो भुगतनी होगी। वैसे मुझे ताज्जुब हो रहा है कि इतने सालों बाद भी तुम्हारे पास 'जमीर' का इतना स्टॉक बचा है। कमाल है....- वर्मा जी ने व्यंग्यात्मक मुस्कान फेंकी।
एक उम्मीद बंधी थी पर हल नहीं निकल सका। बहुत कोशिश की पर 'जमीर' का ज़खीरा अब भी वैसे का वैसा ही रखा है। कोई हो तो बताइएगा। मैने देखा है कुछ 'जमीर' के पैकेट्स में घुन लगने शुरू हो चुके है। इससे पहले कि वो पूरे खराब हों किसी अधिकारी, नेता, पुलिसवाले, पत्रकार (अधिकारी), वगैरह के काम आ जाएं तो अच्छा। ये ज़रूर है कि अपना सामाजिक-आर्थिक स्तर देख कर ही लीजिएगा कहीं ऐसा न हो कि आप भी मेरी तरह किसी मुसीबत में फंस जाएं।
- राकेश पाठक