Wednesday, December 15, 2010

आईने...

1.
तुम आइने से साफ दिखते हो                  
सच कहो कितना हिसाब रखते हो
यहां हर मोड़ पर उलझते हैं रिश्ते
तुम कैसे सब साफ पाक रखते हो

2.
हर तरफ आइने रहने दो
हर तरफ इक सी शक्ल उतेरगी
न तोड़ पाएगा एक भी संग इसे
हर कहानी अपनी ही नज़र आएगी

3.
आइने से तस्वीरें ले लेकर
चस्पा हर गली मुहल्ले में हुई
ये आदमी गुम गया है कहीं
मिले तो मेरे घर का पता देना

4.
लम्स तुम्हारा मिला मुझे
अपनी तस्वीर को छूकर
चेहरे की लकीर ने मुस्काराकर
गुज़रे लम्हों की हरारत दे दी

5.
चौंक गया वो आइने में तस्वीर देखकर
घर से निकला था तब, चेहरा ऐसा तो नहीं था
या कि वो घर पर ही छूट गया
घर में लगे आइने को पता होगा

Sunday, December 5, 2010

घुन लगे चेहरे...

मेरे आसपास
जमात है घुन लगे चेहरों की
जिनके दिलों में दीमक की बांदियां भी मिल जाएंगी
उन घुन लगे चेहरों के
भीतर अक्सर पकता रहता है कुछ
हर रोज़ वो सांप और सीढ़ी का खेल खेलते हैं
हर रोज़...
वो अपने बदसूरत चेहरे को
ढंकते हैं शालीनता के नकाब से
वो रेप्टाइल हैं...
जिनकी रीढ़ नहीं
बेहद लिज़लिज़े और रेंगकर चलते लोग
जिनकी आंखों में खटक सकते हैं
आपके घरों में जलते चूल्हे
अगर आपने उन्हे, उनसे बिना पूछे जलाया है
ये छोटे पर बड़े लोग हैं...
बिना रीढ़ के
जो सतर्क हैं हर पल
जिनको मालूम है
उनकी गंदगी से कब तक सड़ांध नहीं आ सकती
और जब ऐसा हो जाता है
वो बदल देते हैं अपना ठीहा...
पर दिल नहीं बदलता
घुन लगे चेहरे बहुत हैं
एक बार देखिए तो अपने आसपास...

Friday, December 3, 2010

तुम्हारे लिए कुछ...

1.
कुछ उदास रातें
कुछ उदास दिन
कुछ उदास हंसी
कुछ उदास उम्मीद
शाखों से टूटीं हैं
तुम्हारे मुस्कुराते चेहरे ने
फिर से खिला दी हैं नई कोपलें

2.
तुम अब मेरे साथ हो
अब उन अंधेरों को
चिढ़ा सकता हूं मैं...
जो तुम्हारे दूर होने पर
भरते थे अक्सर
मेरी ज़िंदगी में स्याह रंग

3.
तुम्हारे जाने के बाद
घर कितना खाली लगता है
सारी खुशबू, सारी सांसें
पल भर में बुझ जाती हैं
ज़िंदगी, बड़ी बेहिस नज़र आती है?

Saturday, November 27, 2010

मुझे भूले तो नहीं...मेरे शहर


मेरे शहर...
तुम मुझे भूले तो नहीं होगे न...
मेरे लिए ये ज़रूर मुश्किल है
कि तुम्हे याद रखूं
मेरे इर्द-गिर्द हर रोज़ बवंडर उठता है
दिल में हूक का समंदर उठता है
बहुत पहले चुरा लिया गया हूं मैं
भरे बाज़ार में...

मेरी पहचान बुझ गई है
हर रोज़ नींद संकरी गलियों में
उलझा देती है मुझे...
आइने में मेरी जगह...
तुम दिखते हो मेरे शहर...

वक्त की हर तह, हर सिलवट
तुम्हारी तस्वीर में साफ नज़र आती है
तुम कहोगे नहीं...
पर कुछ बातें ये भी कह जाती हैं...

तुम मेरे बिन उदास तो होगे न
मेरे शहर...
खुद में झांककर...
मेरे छोटे से बड़े हुए पैरों के निशान
ढूंढ़ते तो होगे तुम भी कभी...
या कि तुम्हे भी...
वक्त नहीं मिलता
गुज़रे कल को खंगालने का...

आज और अभी के जाले में
तुम तो नहीं उलझ गए कहीं...
तुम मेरे घर के आंगन में
मुझे खेलते बढ़ते...देखते तो होगे न

और देखो, उसी बूढ़े जर्जर मकान के किसी कोने में
मेरे पिता का बचपन भी...
दबा होगा कहीं...
और आंगन के विस्तार में
खुले आकाश के नीचे...दबी होगी
उनके जाने की कहानी भी...

सब जोड़कर रखना मेरे शहर...
कभी लौटा...खुद को भूला हुआ
तो याद कराना
इन सभी से...

याद है...
अक्सर तुम्हारी रहस्यमयी गलियों में...
कैसे सहम जाता था मैं...
और कैसे तुम शांत पड़े रहते थे...
तुमने मुझे बताया था, मेरे शहर...
अंधेरे का मतलब...
सहमना नहीं होता उजाले की तलाश होती है...

मेरे शहर मेरे घर के चबूतरे को
बुहारते रहना...
अपने हिस्से की धूप से
और सके तो एक टुकड़ा हमेशा की तरह
ठाकुर जी की... कोठरी की
छोटी खिड़की सी फेंक दिया करना...
अंदर ताकि मेरे घर के हर हिस्से को
मेरी हरारत का लम्स मिलता रहे...

तुम तो जानते हो मेरे शहर...
बड़े शहरों की धूप बड़ी खुरदुरी होती है
और बड़े शहरों में
ऊंची दंभ से भरी इमारतों में
रहनेवाले  लोगों के दिल...
रेत की तरह भुरभुरे होते हैं....

मैं महसूस करता हूं कई बार
मेरा दिल कई बार धड़कता नहीं है...
कई बार उसकी धड़कन की रौ में...
फंसती रेत की किरकिरी महसूस करता हूं...
मेरे शहर...
हो सके तो मेरे घर के उस कमरे से
जहां मेरी नाल दफन है
कुछ मिट्टी भेज देना...

और हां मेरे प्यारे शहर...
वो किनारा तो तुम्हे याद होगा...
जहां मेरी अम्मा ने अंतिम बार
बंद आंखों और जमी देह से...
अपने पैरों से गंगा को स्पर्श किया था...
मेरे लिए...हो सके तो...
उस पानी के टुकड़े को बचा कर रखना...

क्योंकि जब लौटुंगा तुम्हारे पास
तो मेरे शहर...
मुझे ज़िंदा तो करोगे न तुम

और अंत में...
मेरे बहुत प्यारे शहर
खुदा के लिए...देखो
ये न कहना कि तुम भी बदल गए हो...
तुम्हारा दिल भी रेत हो चुका है...
मेरे शहर...
खुदा के लिए नहीं...
क्योंकि मेरे जिंदा होने की उम्मीद तुम हो...
और उनके भी जो अब नहीं हैं....
ये तो जानते हो न तुम...?

Thursday, November 18, 2010

रोटी...
जुगाड़ बन गई है
रोटी खिलवाड़ बन गई है
हड्डी के ढांचों पर राजनीति
अक्सर रोटी सेकती है...
तमाम दधिचियों की आहूति से...
हर रोज़ राजनीति चमकती है...
हर रोज़ किसी न्यूज़ चैनल पर...
इनकी खबरें वेश्या सी मचलती हैं...
सुनो अगर हो सके तो कान मत दो
मुल्ला, मस्जिदों में अज़ान मत दो
मंदिरों की घंटियों उतार फेंकों...
क्योंकि हर तरफ अस्थि पंजर फैले है...
शुभता का कहीं भी संकेत नहीं...
राजनीति में हर चेहरे
मनहूसियत की हद तक मैले हैं...

Wednesday, November 3, 2010

दरख्त सूखते नहीं...

दरख्त यूं सुखते नहीं...
दरख्त कभी सूखते नहीं
अगर उनको मिल जाती थोड़ी तसल्ली 
इस बात की...
कि अगर वो न रहे तो...
ज़मीन पर ज़िंदगी
सिकुड़ती चली जाएगी...
गर वो न रहे तो
नीड़ की जगह
बेहिस और रूखी इमारतों में होगी 
और गुरूर से तनी इमारतों में...
कभी ज़िंदगी नहीं पनपती...
दरख्त कभी सूखते नहीं...
गर बता देते उन्हें उनके होने की अहमियत...
गर वो न देखते उनके ऊपर तनती कुल्हाड़ियां
मैने सुना वो दरख्त टूटता हुआ
ये कहता रहा...
अब क्या रखा है इस जहां में...
जब एक इंसान नहीं पूरे मकां में...

रोटी...

रोटी...
जुगाड़ बन गई है                            
रोटी खिलवाड़ बन गई है
हड्डी के ढांचों पर राजनीति
अक्सर रोटी सेकती है...
तमाम दधिचियों की आहूति से...
हर रोज़ राजनीति चमकती है...
हर रोज़ किसी न्यूज़ चैनल पर...
इनकी खबरें वेश्या सी मचलती हैं...
सुनो अगर हो सके तो कान मत दो
मुल्ला, मस्जिदों में अज़ान मत दो
मंदिरों की घंटियों उतार फेंकों...
क्योंकि हर तरफ अस्थि पंजर फैले है...
शुभता का कहीं भी संकेत नहीं...
राजनीति में हर चेहरे

Wednesday, August 11, 2010

सोच को लगाम...

प्रिय मित्र,
माफ किजिएगा आज से सोचना बंद कर रहा हूं। ये एहद है जो उठा रहा हूं। सोचा कि आखिर सोच कर उखाड़ क्या लूंगा। और जो सोचते थे उन्होने क्या उखाड़ लिया। सोचने समझने विचारने और उसको उतारने के लिए बड़े लोग बैठे हैं कांपते हुए सिंहासन पर जिनके पेट में अक्सर हौल उठती है अगर कोई और सोचता है या करता है। तो भईया सोचा कि क्यों उनकी पेट की हौल को बढ़ाकर अल्सर में कन्वर्ट किया जाए। वैसे सोचने के दायरे इनके पास कई तरह के होते हैं। ये दायरे कई पैरामीटर  के आधार पर बनते हैं। आलोचनाओं से ये सोचने वाले, कांपते सिंहासन पर बैठे इंद्र हड़कते हैं। खैर...तमाम तजुर्बों के मद्देनज़र इस फैसले पर पहुंचा कि सोचने इन्ही को दिया जाए। अपन मस्त रहें।

मेरे बाबा के ज़माने में कई प्रकार के लोग घर पर आते थे। चूंकि बाबा बनारस के जानेमाने ज्योतिषी थे लिहाज़ा लोग उनके पास तरह-तरह की समस्याएं लेकर आते और मैं बाबा के साथ बैठक में बैठकर बाबा की ज्योतिषीय गणित की खट-खट उनके स्लेट पर सुनता। मुझे लोगों की समस्याओं में न रूचि न उनको समझने के अक्ल हां जो मुझे अच्छा लगता था वो बाबा के स्लेट से निकलती खट-खट थी। बाबा की स्लेट मुझसे बड़ी थी और खासी चिकनी। मैं जब पूछता  कि बाबा मेरी स्लेट ऐसी क्यों नहीं है तो वो कहते जितना पढ़ोगे लिखोगे उतनी चिकनी स्लेट होती जाएगी। सो उसपर ज्यादा पढ़ा लिखा तो नहीं हां चित्रकारी खूब की। और कोशिश यही रही कि खट-खट की आवाज़ ज़िंदा रहे। इसके लिए भी खूब सोचा था मैंने कि आखिर जुगाड़ क्या हो कि पढ़ाई भी न करनी पड़े और स्लेट चिकनी भी हो जाए।

हां तो मैं बता रहा था कि बाबा के ज़माने में कई तरह के लोग (अलग-अलग डिज़ाइन वाले), घर पर आते रहते थे। उनमें एक थे फेंकू राम। फेंकूराम बेसिकली एक छोटा से प्रेस चलाते थे और बाबा का पंचाग उसी प्रेस से निकलता था। फेंकू जी छोटे कद के सिमटे हुए बड़े आदमी थे। कुर्ता-धोती मुंह एक तरफ पान के बीड़े से फूला हुआ और काले फ्रेम वाला चश्मा और मोटे ग्लास के पास से झांकती उनकी एक्स्ट्रा बिग आंखें। उनकी आवाज़ में बेस भी था और नाक का असर भी। उनकी सिकड़ी खटखटाने की आवाज़ (मेरे घर के मोटे दरवाज़े में दो खट-खटाने वाने गोल सिकड़ी लगी हुई है।) खास थी शायद उनकी आवाज़ से मिलती जुलती या उनकी पर्सनालिटी से, ज़ोर-ज़ोर से पर छोटे-छोटे कई खंडो में वो खड़खड़ाते थे। मैं सन्न से दौड़ पड़ता फेंकू आए...फेंकू आए करके।

दरवाज़े को खोलते ही फेंकू राम जैसे गदगद हो जाते लगता कि उनकी आंखे इस बात को सोचकर आश्वस्त हो जातीं कि कम से कम मैं उनसे छोटा ही हूं। पान का लाल रंग चढ़े दांत दिखाते पूछते "पंडित जी हउवन?"  मुझे फेंकूराम किसी दूसरी दुनिया से आए बहुत ही प्यारे कैरेक्टर लगते थे। छोटा सा चेहरा सलीके से कढ़े हुए तेल लगे बाल। होठों पर पान का रंग और काले-लाल-सफेद दांत। और हां पैरों में पंप शू, कंधे पर लाल रंग का गमछा। लेकीन इस सब के अलावा एक खास बात और भी थी वो थी उनके पेशानी पर उभरी हुई तीन-चार लकीरें। ये मेरे लिए सवाल थीं कि आखिर इनके चेहरे पर ये लाइनें कहां से आईं। बाबा से पूछ लिया एक दिन तो उन्होने बताया कि फेकू राम ज्यादा सोचते हैं। ज्यादा सोचना नहीं चाहिए बल्कि करने में यकीन करना चाहिए। तब बालमन ने ये एहद उठाई थी कि ज्यादा सोचूंगा नहीं बल्कि करुंगा। पर वक्त ने अपनी तमाम परतों में इस अहद को दबा दिया था।

फेंकूराम जब भी घर आते मैं उनको बैठक में बैठाता और दौड़ कर बाबा को खबर करता। बाबा को मेरा बड़ों जैसे ज़िम्मेदारियां उठाना किसी मनोरंजन से कम नहीं लगता और मुझे बाबा के साथ बैठक में बैठकर फेंकूराम को निहारना। बाबा के न रहने के बाद फेंकूराम का आना भी धीरे-धीरे कम हो गया। कभी-कभार बाबूजी से मिलने आए फिर न जाने कहां गुम हो गए। ऐसे ही कई कैरेक्टर थे, जो न जाने क्यों याद आते हैं जिन्हे बाहर की दुनिया के इंट्रोडक्शन के दौरान देखा। जो किसी काल्पनिक दुनिया के पात्र थे।

उस वक्त जब खुले आंगन में गर्मी के दिनों में हल्के ठंडे बिस्तर  पर सोते हुए अंधेरे आसमान में टंके सितारों को देखता तब भी सोचता था आखिर क्या है ये सब, कितना है सब...कहां तक है सब....सारे चेहरे जो दिनभर मिलते वो घूमते ज़ेहन में फिर नींद आकर न जाने कहां ले जाती उन्हे। मेरे सवालों के जवाब बाबा से लेकर बाबूजी, भईया और जीजी, दादी और अम्मा तक सबके पास होती। सरल जवाब जो एकबार में समझ आ जाता था। पर अब न जाने क्या हो गया है सवालों के जवाब नहीं मिलते। मिलते हैं तो उलझे। रिश्ते भी अब कितने पेचीदा हो गए हैं अचानक। सोचना तब भी चलता था आज भी चलता है, आप ही बताइए जो आदत बचपन की हो वो भला कैसे छूट सकती है।

तो साहब मन नहीं मानता फिर सोचने लग जाता हूं कि रोटी ने कितना मजबूर कर दिया है। अब अपने शहर की हरारत महसूस नहीं होती। घर लौटता हूं तो लगता है मेरा शहर मुझे बुझी आंखों से टटोल कर पहचानने की कोशिश कर रहा है। पर वहां रह भी नहीं पाता क्योंकि सपनों की दुनिया से आनेवाले सारे कैरेक्टर धुआं हो चुके हैं। मेरे शहर के हर मोड़ में इतना पैनापन आ चुका है कि थोड़ा सा चूके तो सीधे ज़ख्मी होने का ख़तरा है।

खैर...देखिए बातों बातों में इतना सोच गए। चलिए इस सोच को यहीं लगाम लगाता हूं। भूल-चूक लेनी-देनी। हां इतना आश्वस्त ज़रूर करना चाहूंगा कि ये सोच किसी सिंहासन पर कब्ज़ा करने के लिए नहीं है इसलिए पेट में हौल मचाने की ज़रूरत नहीं है।

आपका
राकेश

Saturday, August 7, 2010

'लाउड होता बनारस'

बउराना दोनों ओर है। एक उनमें जो बनारस को छोड़कर किसी मेट्रो में प्रवासी की भूमिका में है और बनारस का नाम आते ही या फिर बनारस में पैर रखते ही उह-आह-आउचनुमा सोफीस्टिकेटड टाइप शब्द उगलते हैं। दूसरे वो जो बनारस में रहकर ही बनारस की छाती पर मूंग दल रहे हैं। एक बाहर से बनारस के न बदलने पर नाक भौं सिकोड़ता है, कब्जियत का चेहरा बनाता है दूसरा अंदर ही अंदर बनारस को खलिया रहा है। जिसके लिए बनारस की संस्कृति, बनारस की कला, बनारस की धरोहर, बनारस का संगीत सब बिकाऊ है। साहब बाज़ार का विरोध नहीं है पर ये तो ज़रूर निश्चित होना चाहिए न, कि कितना बाज़ार। आप कह सकते हैं कि अगर संजोएगा तभी तो बेचेगा। लेकिन आप ज़रा लंबे अरसे के लिए बनारस में रुकिए आपको पता चल जाएगा संजोना उतना ही हो रहा है जितना बिके, संजोना बस ऊपर-ऊपर ही से है। दरअसल अंदर से, भीतर से बड़ा ही खतरनाक खेल चल रहा है। कहीं ऐसा न हो कि आप ऊपर ही ऊपर चमक में फंसे रह जाएं, या अटके रह जाएं और जब आप बनारस को समझने के लिए इसे स्पर्श करें तो ये भरभरा कर गिर जाए।


एक लंबे अरसे के बाद बनारस गया अपने बनारस में। पर न जाने क्यूं ये बनारस बूढ़ा थका हुआ, अपनों से उपेक्षित घर के किसी अंधेरे कमरे में चुपचाप मटमैले बिस्तर पर टिका बुज़ुर्ग महसूस हुआ। लगा कि उसे ऐसा बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। बनारसी फक्कड़पन की संस्कृति भी कितनी सोफिस्टिकेटेड और प्रेंज़ेटेबल हो गई है। फक्कड़पने में भी सलीका रखा जा रहा है।

मुझे शिकायत बदलाव से नहीं है। पर बदलाव सिर्फ और सिर्फ खुद के लिए हो रहा है ये बदलाव ज्य़ादा और ज्यादा कमाने के इरादे से घर के चूल्हे, बर्तन और यहां तक की अपनों को बेचने जैसा लग रहा है। पहले गंगा की आरती होती थी जब तो घंटा घड़ियाल की आवाज़ें कहीं अंतस को छूती थीं। उन्हे लाउडस्पीकर के ज़रिए लाउड नहीं किया जाता था अब तो सब लाउड ही लाउड है। बनारस की पूरी ज़िंदगी इसी लाउडपने में समा गई है। पूरी फक्कड़ संस्कृति को खींच कर इतना नाटकीय और लाउड इन बनारस के लालों ने कर दिया है कि खरीदने वालों और तमाशा देखने वालों की भीड़ तो लग रही है पर खरीद कर ले जा रहे हैं संस्कृति की भस्म।

त्यौहार वैसे तो हर शहर में मनाए जाते हैं फिर वो हिंदुओं के हों या मुसलमानों के या फिर किसी और धर्म के खुशी और रंगत हर जगह दिखती है। पर मैं बेतक्कल्लुफ होकर ये फरमाउंगा कि अब वो रंगत यकीन मानिए बनारस के किसी त्योहार में नहीं है। अब भीड़ नज़र आती है त्योहारों के मौकों पर...लेकिन भीड़ मस्त कम बदहवास ज्यादा दिखती है। अपने तरह से, अपने हिसाब से फूहड़पन के नए नए पैरमीटर सेट किए जाते हैं मजाल है कि आप बोल दें...बस यही समझिए कि “सटला त गईला बेटा।” और अगर आपके साथ कोई हादसा नहीं हुआ तो भी कोई गुटखा मुंह में घुलाए...भोकर देगा...यही त हौ बनारस।

(शेष आगे...)

Tuesday, August 3, 2010

बनारस चर्चा...

बनारस की बात पिछले अंक में हुई थी। बनारस ज़ुकाम की तरह मुझे लंबे अरसे से परेशान कर रहा है हांलाकि ज़ुकाम के हल्के सुरूर का मज़ा ले रहा हूं। कल सपने में देख रहा था अपना शहर और उसकी भीगी-भीगी सुबह। भीगी-भीगी सुबह इसलिए क्योंकि सुबह के वक्त यहां कि लगभग हर संकरी गली पानी से तर-बतर होती है। सरकारी ‘कल’ (हमारे यहां नल को कल बोलते हैं) तो अब कम ही बचे हैं लेकिन प्राइवेट कलों की और टुल्लु की संख्या बढ़ गई है लिहाज़ा घर के बाहर जुगाड़ के पाइप से हर्रउल पानी आता है और उसको बज़रिए टुल्लू पंप घर में पहुंचाया जाता है।

सबेरे के वक्त सुंघनी या गुल दांतो पर रगड़ते, संकरी गलियों में चबूतरे पर या फिर घर की ड्योढ़ी पर बैठे...बतकुच्चन करते लोग तेज़ी से आंखों के सामने घूमते चले गए। पानी यहां से वहां तक फैल जाता है। डालडा के दस किलोइया डब्बे से लेकर बड़े-बड़े गैलनों में पानी भरा जाता है। पानी पर से बहस शुरू होती है और उसे घसीटते-घसीटते ईरान की गैस पाइप लाइन और अमेरिका के चुनाव से लेकर क्लिंटन की बेटी चेल्सिया की शादी और फिर उपनिषदों के गूढ़ अर्थों की लंठईकृत व्याख्या कर बकचोदी खत्म होती है।

मेरे कुछ मित्र हैं जो अब बनारसी नहीं रहे, दरअसल मेट्रो के ठिठुराकर अकड़ पैदा कर देनेवाले संक्रमण ने इतना चउचक असर डाला कि बनारस में लोगों के हाथ फेंक कर चलने से उन्हे एलर्जी होने लग गई। जिस बनारस ने उन्हें ज़िंदगी की पेचीदा गलियों से निकलने की न जाने कितनी बार बेहद मस्त अंदाज़ में तरकीब सिखाई अब वही बनारस उनके लिए अप्रासंगिक है। उसकी उलझी और संकरी गलियों को देखकर, उसमें घुसनेपर उन्हे ‘बुल शिट’ याद आता है। कोसना भी ऐसा होता है जैसे कोई उत्तरआधुनिक पुत्र अपने पिता को कोस रहा हो। बस चले और अगर बनारस कोई ज़िंदा शख्स हो तो ये सचमुच उसे किसी ‘ओल्ड एज होमनुमा’ जगह पर डाल दें। चूंकि मैं लिख रहा हूं और इसे आप जैसे भद्रजन पढ़ रहे हैं लिहाज़ा लिखने की मर्यादा का निर्वहन करना है वरना मेरे पास ‘बनारसी रूद्री’ का खज़ाना ऐसे लोगों के लिए है। उस ‘रूद्री’ पर विस्तार से लिखूंगा फिर कभी।

हां तो छोड़िए ऐसे...वालों को। मैं कह रहा था बनारस याद आ रहा है। और बेइंतहा, न जाने क्यूं ऐसा लगता है बूढ़े बनारस को जवान बनाने की कोशिश चल रही है। डेंट पेंट चल रहा है हर तरफ, बिना उससे पूछे कि “बुढ़उ मजा आवत हौ रंगीन भईले में।“

दरअसल बनारस के दोनों टाइप के लौंडे जो सत्तर के दशक उत्तरार्द्ध, अस्सी और नब्बे के दशक में पैदा हुए उसे दक्खिन लगाने पर तुले हुए हैं और यकीन मानिए बउरहट के हद तक।
 
(इन दो टाइप के लोगों के बारे में अगले अंक में...)

Monday, August 2, 2010

यूं ही कुछ...

मुझे तरक़ीब लगाने दो कुछ                            
अब जाकर ठहरा हूं मैं किनारे पर

तुम्हें डूबने न दूंगा दरिया में इस तरह
लहरें जम जाएंगी मेरे इक इशारे पर

कहता है तूफान उठाएगा वो जहां के लिए
मुझे तरस आने लगी है उस दीवाने पर

वो इक भूखे आदमी की लाश थी
हुक्मरानों की कतार थी उसके दरवाज़े पर

'राकेश'






Wednesday, July 14, 2010

बाज़ार में बनारस

मेरा शहर है बनारस,  जब आप कभी यहां आएंगे तो हो सकता है कि इसकी गुनगुनी तासीर में एक एक लम्स मेरा भी मिल जाए। खैर... बचपन में जब आप पिता जी की अंगुलियों को पकड़कर किसी शहर को बस और बस खुद के नज़रिए से देखने के लिए निकलते हैं तो कितना नया लगता है सब वैसा ही मुझे भी लगता था। कबीर चौरा चौराहे पर सोमनाथ चचा की पान की दुकान। जिसपर ब्रास की चद्दर चढ़ी चौकी पर लाल रंग के कपड़े में भीगे हुए पान लिपटे रखे रहते थे। शाम के वक्त बाबूजी के साथ उस दुकान तक पहुंचना मेरे लिए लंबा सफर था जो पहले पैदल फिर उनकी गोद में बैठकर पूरा होता था और  रोचक होता था। अब ये सफ़र   बहुत छोटा है बमुश्किल पांच से सात मिनट का पैदल...उबाऊ नहीं कहुंगा क्योंकि इतने कम वक्त में आप ऊब भी नहीं सकते।

उनकी दुकान पर पहुंच कर मैं उस दुकान के पूरे कैरेक्टर को खामोश निगाहों से खोजता...सोमनाथ तो मिलते ही...उनके भाई मदन और उनकी मां...जिन्हे मैं देखता डरने के लिए था। मुझे सोमनाथ चचा कतई पसंद नहीं थे...अक्सर अकड़ में रहते हां पहुंचने पर ये उसी भावभंगिमा के साथ ये ज़रूर बोलते 'गुरूजी पालगी' और खिस्स से हंस देते वो और वहां खड़े सभी। मेरी मुट्ठियां बाबूजी के उंगली के इर्द-गिर्द और भिंच जाती। क्योंकि मुझे सबका अटेंशन पाने से परेशानी होती।

एक छोटा मीठे पान का बीड़ा मेरे लिए भी होता था कभी-कभी। जिसे सोमनाथ चचा चुपचाप मेरे तक बढ़ा देते और मैं बाबूजी की तरफ सर उठाकर देखता और फिर सहमति मिलते ही उसी स्टाइल से दबा भी लेता। मेरी कोशिश ये होती थी कि जल्द से जल्द यहां से निकला जाए कहीं सोमनाथ चचा की मां न आ जाएं...पर किस्मत अक्सर खराब ही होती थी। वो कभी दुकान के अंदर से या फिर बाहर से चिल्लाते हुए आ ही जाती थीं। सफेद मटमैली धोती...वैसे ही बाल और चेहरे पर दुनिया भर से चिढ़े हुए भाव...और मुंह में गालियां। वो मुझे किसी कहानी की बुढ़िया जादूगरनी लगती थीं। गुस्सा हांलाकि उनके नाक पर होता था लेकिन मुझसे स्नेह था...सोमनाथ चचा से पूछतीं कि बच्चा के पान खिउवले...?

कबीर चौरा दरअसल बनारस का क्लासिकल इलाका है। बनारस का 'दर्शन' अगर घाटों पर है तो 'शास्त्रीय बनारस' कबीर चौरा पर। शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना, कबीर चउरा से नागरी नाटक मंडली के बीच सड़क उस पार बसा है। पं कंठे महराज, उसके बाद गुदई महाराज, किशन महाराज, राजन-साजन मिश्र, बिरजू महाराज सब एक ज़माने में कबीर चौरा चौराहे से लेकर पिपलानी कटरा तक झूलते थे। गोपी की दुकान पर कचौड़ी सरियाते और भईया लाल की दुकान पर चाय के साथ गप-सड़ाका लगाते थे।

मेरे बचपन में कबीर चौरा चौराहा और पिपलानी कटरा के बीच (जो एक किमी से भी कम क्षेत्र है) कम से कम चार किताबों की दुकानें थीं। यहां कोर्स की किताबों के अलावा स्टेशनरी मिला करती थी। इसके अलावा एक पत्र-पत्रिकाओं की दुकान हुआ करती थी। आज इस इलाके में एक भी किताबों की दुकान नहीं। इसका मतलब ये कतई नहीं कि दुकानें नहीं रहीं दुकाने तो पहले से ज्यादा हैं लेकिन कुछ में इंटरनेट कैफे है...और कहीं तो ठंडी बियर की दुकान तक खुल गई है। कांबिनेशन देखिए एक मंदिर है हनुमान जी का और उसके बगल में है ठंडी बियर की दुकान।

बनारस एक समय में मोक्ष की नगरी थी। पर माफ किजिएगा अब नहीं है। पहले यहां की फिज़ां में भांग की मस्ती होती थी। अब दारू की दुर्गंध है। सड़क के मकान दुकानों में तब्दील हो गए हैं। गली के मकान कटरों में। मंदिरों के चारदिवारियों को भी दुकानों में बदल दिया गया है। और मंदिर तो दुकान हैं ही। एक अजीब सा घालमेल चल रहा है। ये उन्ही लोगों की साज़िश है जो बनारस के हैं और बनारस को ज़िंदा नहीं रखना चाहते। विकास बाज़ार का हो रहा है, बनारस का नहीं।

ये बाज़ार बनारस में किसी कैंसर की तरह पनप रहे हैं। बनारस की धमनियों रक्त रूक-रूक के दौड़ता है आजकल। यही वजह है कि जब आप बनारस आते हैं तो घुटते शहर को देखकर आपको भी अफनाहट हो सकती है। सड़के जाम है, गलियां की बजबजाती रहती हैं भीड़ से, दुकानों से और ओवर फ्लो होते सीवर से।

जानेमाने लेखक और समीक्षक काशी नाथ सिंह जी ने 'काशी की अस्सी' में जिस काशी का ज़िक्र किया है जिन कैरेक्टर्स को खींचा है उनमें से आज एक भी बनारस में ज़िंदा नहीं। पहले वो कैरेक्टर बनारस की हर चाय की दुकान, पान की दुकान पर या फिर गलियों में नज़र आते थे। अब लोग भांग का कर बौराते नहीं है दारू पीकर नालियों में लुढ़कते हैं और मक्खियों से लिपटे पाए जाते हैं। होश आने पर नज़रें शर्म से झुकती नहीं बल्कि उजड्डों की तरह घूरती निकल जाती हैं।

उजड्ड लफंगों की टोली बनारसी मस्ती के नाम पर नंगा नाच करती है हाथों में दारू की बोतल और मुंह में चिकन की टुकड़ा दबाए। ये टोली हर त्योहार में पाशविक हो उठती है। बनारस को बेचती ऐसी कई टोलियां आपको जाने पहचाने इलाकों में मिलेंगी...ये नए बनारस के  'बाज़ार संस्कृति' की संकर औलादें हैं जो बनारस को बुझाने और इसकी तासीर बर्बाद करने का षडयंत्र रच रही हैं। इन्हे देखकर लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब बनारस किसी बाज़ार में बिकता नज़र आएगा...या फिर तेज़ी से बनते बाज़ार के ब्लैक होल में समा जाएगा।

Monday, July 5, 2010

मेरे हिस्से की बारिश

बहुत दिनों से खाली था
आसमान
ठहरती नहीं थीं निगाहें
आसमान में...
कसैली धूप लावा बन बरसती थी
लेकिन अब बारिश आई है
आखिर हर चीज़ की इंतहां होती है
यहां से वहां तक हर सू
बादलों का कब्ज़ा है...
दमकती बिजली है
मदमस्त मेघ गा रहे हैं...
बच्चे कागज की नाव बना, मचलते जा रहे हैं
मैं हाथ बढ़ा बारिश की नन्ही बूंदो को छूता हूं
ये मेरे हाथों से फिसल जाती हैं
जैसे रिश्ता ही नहीं था कभी, ऐसे निकल जाती हैं...
 

Friday, May 21, 2010

Friday, April 30, 2010

किसी को खबर है?


फिसलती धूप
तल्ख हो रही है
दिन ब दिन
आग में तब्दील हो रही है
सबकुछ जला देने पर अमादा है धूप

तल्ख धूप जल रही है
जलती धूप मचल रही है
इस बार पहले से और तेज़ है
और तल्ख होगी धूप
सब जला देगी
मौसम विज्ञानी कहते हैं

ग्लोबल वार्मिंग का असर है
और ग्लोबल वार्मिंग पर
किसका असर है....
क्या किसी को खबर है?

Sunday, April 4, 2010

वामपंथी हैं शिव

एक चर्चा चल रही थी चर्चा में एक विलक्षण विषय मिला एक वामपंथी मित्र ने कहा दरअसल शिव वामपंथी हैं, वो वंचितों के देवता हैं। ये तथ्य तार्किक लगा सो एक स्केच खींचा ये स्केच आपके लिए...

Thursday, March 18, 2010

परतें...


कुछ तो याद है
कुछ भूल गया हूं...
जो भूल गया शायद वो ज़रूरी था
बिल्कुल उबलते पानी की तरह
एक एक कर सतह उड़ती रही
हर परत जो आज थी, अभी थी
मिटती रही
मिटाना ज़रूरी था नया लिखने के लिए

पर आजकल...
एक अजीब सी मुश्किल है
सपने थकाने लगे हैं...
सपने गहरी नींद से जगाने लगे हैं
सपनों में वो परतें दिखती हैं...
सपनों में वो परते घेरती हैं
परतें दरकी हुई नज़र आती हैं
बेज़ार सी...

उन परतों को हटाकर
बहुत कुछ चुनता हूं...
बहुत सारे उजाले मुट्ठियों में भरता हूं
पर जब आंख खुलती हैं...
मुट्ठियां भिंची होती हैं
खाली मुट्ठियां...
आजकल न जाने क्यों, सुबह जागने से होती है...

Friday, March 12, 2010

मैं मीडिया हूं...



मेरा दम घुट रहा है
अक्सर सोचता हूं तो...
दिमाग की नसें तन जाती हैं
मैं अपनी सूरत से खुश था
तसल्ली थी, सूकून था...
हांलाकि वो चेहरा भी दूसरों ने ही गढ़ा था
पर चेहरा सबका था, सबकी पीड़ा थी
सबकी खुशी भी...
कभी मुझे अपने इस चहरे से परहेज नहीं हुआ
जिन्होने मुझे चेहरा दिया था
ईमानदार लोग थे...मेरे हिसाब से।
सब मिशन पर थे....
आज़ादी, समाज और लोग उनके सरोकार थे
फिर समय के साथ मेरे चेहरे को रंगा गया
मुझे बाज़ार के लायक बनाया गया...
क्या बोलना है...क्या दिखाना है
समझाया गया...
ये लोग नए थे, चेहरे नए थे...
हर रोज़ एक चेहरा आता
मुझपर एक चेहरा लगाता, चला जाता
मैं खुद अपना चेहरा भूलने लगा
सही और गलत के तर्क में झूलने लगा
अब मैं बदल चुका हूं...
आम आदमी कहता है
कितना गंदा चेहरा है मेरा
कितना छिछला
मसखरे जैसा भी लगता है कभी-कभी
पर....
किसपर लगाऊं मेरे चेहरे को ऐसा बनाने का इल्ज़ाम
मैं उनकी शिनाख्त नहीं कर सकता है
हां इतना ज़रूर है कि मैं बिकता खूब हूं
और लोग
गालियां देकर भी मुझे खरीदते हैं
मेरी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई...
पर अक्सर...जब सांसे कम पड़ती हैं.
सर भिन्नाता है
अपने असल चेहरे को देखने के लिए
मन छटपटाता है...
तो लगता है सबके खिलाफ़
दर्ज़ कराऊं एफआईआर....
पर किसके खिलाफ....
मैं उन्हे पहचानता नहीं
क्योंकि वो जब भी मिले,एक नए चेहरे के साथ मिले

Sunday, March 7, 2010

मैं ज़िंदा हूं...


कलम बुझ रही है
नहीं, कलम बिक रही है
कलम ज़िंदा नहीं अब
हरारत होती जो जिस्म में...
तो लिखती, बोलती, उधेड़ती

नहीं, कलम ज़िंदा है पर टूट गई है...
तस्वीरें ज्यादा बोलती हैं
तस्वीरें जो अच्छी लगे
कलम ने एक समझौता किया है
उससे, जिसने उसे ज़िंदा रहने का मौका दिया है
सांसे चल रही हैं 'वेंटिलेटर' पर...

कलम चीख नहीं सकती
कलम अवसाद ओढ़े है
कलम लिखे तो खून रिसता है
कलम ज़ुबां ढूंढ़ती है
सुना है कलम ने ज़िंदगी को गिरवी रख
सांसे खरीदी हैं

नहीं, कलम नहीं मरी
अब वो हाथ नहीं हैं
जिनमें ज़िंदगी की जुंबिश थी
हर आदमी के दर्द की खलिश थी

दरअसल मरा वो आदमी है
जिसके साथ उसने बना लिया था
एक मरासिम...
कलम बुझेगी नहीं
वो लौटेगी...
गर वो आदमी लौटेगा

आदमी शिकारी है!


तरकश हर शख्स रखता है
और तीर भी
पर ज़रूरी नहीं कि
हर तीर ज़हर बुझे हों...

कुछ लोग तरकश में
बिना नोक वाले तीर रखते हैं
चोट तो लगती है, जान नहीं जाती
और इंसानों के कभी शिकारी होने की
पहचान नहीं जाती...

Wednesday, March 3, 2010

आपके लिए...



1.
चिंगारियां पानी से नहीं बुझतीं
न कभी थकती हैं...
चिंगारियां मन में दबी हों...
तो मन भी नहीं थकता

चिंगारियां गुंजाइश रखती हैं
हर दौर में खुद के आजमाइश की
चिंगारियां जंगल की आग बुझा सकती हैं...
और सांस ले लें तो पूरा शहर जला सकती हैं...

तो चिंगारी को सहेजेंगे क्या
खुद में चिंगारी बोएंगे क्या...
शर्त है ज़मीन उपजाऊ होनी चाहिए...
आग के भड़कने की भी गुंजाइश होनी चाहिए...



2.
अगर लगता है कि...
नई शुरूआत के लिए...
ज़रूरी है आग लगाना
तो जला दो न सब..

अगर लगता है कि
कि तंत्र खंडहर बन गया है...
तो, ढहा दो न सब...

Sunday, February 14, 2010

कोपेनहेगन 'फैशनवीक' से निकलता संदेश



कोपेनहेगन याद है। वही कोपेनहेगन जहां जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर करीब करीब दुनिया के सभी मुल्कों के बड़े प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। सुर्खियां थीं, बहस थी, चिंतन था धरती के ऊपर मंडराते खतरे का। कहीं गर्मी पड़ी तो पड़ती रह गई, तो कहीं ठंड ने ज़िंदगी को सिकोड़ कर रख दिया। नदियों के घटते जलस्तर पर चर्चा हुई तो मौसम के बिगड़ते मिज़ाज़ पर चिंता। लेकिन इस बार ये शहर फैशनपरस्तों के लिए जगमगा रहा है। यहां चल रहा है कोपेनहेगन फैशन वीक। ये उत्तरी यूरोप के बड़े फैशन जलसों में से एक है। फैशन वीक का ये जलसा फैशन की नए और जानेमाने दोनों ही तरह की डेनिश प्रतिभाओं के लिए भविष्य लेकर आता है। चार दिनों के इस आयोजन में तकरीबन चालीस शो होनेवाले हैं। और इसमें कई जानेमाने लेबल्स शामिल हैं जैसे रॉज़ुओ का डैनिश लेबल, मैलेन बर्जर का नॉयर और हैनरिक विबिस्को। इसके अलावा उत्तरी यूरोप के बड़े लेबल्स भी इस फैशन वीक में नए कलेक्शन पेश करेंगे। खास बात ये है कि इस बार का फैशन बिल्कुल नए ट्रेंड को लेकर है। रिपेयर्ड क्लाथ्स...आर्थिक मंदी से उबर रही दुनिया के लिए ये सिंपल पर मॉड है। ये स्ट्रीट फैशन है...

ट्रेंड एक्सपर्ट विंसेट ग्रिगोरे कहते हैं कि "एक खास बात जो इस आर्थिक मंदी से उबरती दुनिया में दिखाई दे रही है वो है ग्राहकों का सादा ज़िंदगी को ओर बढ़ता रूझान। अब लोग रिपेयर किए कपड़ों को भी पहनना पसंद कर रहे हैं। जो खराब हो चुके हैं। इसके ज़रिए वो बिना कहे ही कई संदेश देते हैं। गहरे नैतिक मूल्य, एक नई आधुनिकता, एक नई सरलता। और हां एक विलासिता से भरी हुई सरलता। "

फैशन और नए ट्रेंड की समझ ज़ाहिर है फैशनडिज़ाइनर्स से बेहतर किसी के पास नहीं होती। लेकिन इन फैशनडिज़ाइनर के पास एक समझ और है वो है फाइनेंशियल क्राइसिस से उबरती दुनिया के बाज़ार की। इन फैशन डिज़ाइनर्स ने स्ट्रीट फैशन को नैतिक मूल्यों से जोड़ दिया है। ये कहते हैं कि कंज़्यूमर्स दरअसल अब सादा जीवन के सिद्धांत को तवज्जो दे रहे हैं ये एक अच्छा संकेत है। वो सामान्य कपड़े खरीदना चाहते हैं जो साधारण वस्तुओं से बना हो।

नए ट्रेंड की तीन खासियत है। पहला ये नीतिगत है दूसरा ये सादगी से भरा हुआ है। और तीसरा ये ज्यादा स्थानीय है। कंज्यूमर वैश्वीकरण से डरे हुए हैं लिहाज़ा वो कुछ ऐसा चाहते हैं जो ज़मीन से जुड़ा हुआ हो और उनकी ज़िंदगी के नज़दीक भी हो।

भले ही आर्थिक मंदी का असर नकारात्मक नज़रिए के साथ देखा गया हो पर डैनिश फैशन वीक में उभरती फैशन की नई परिभाषा और नए संकेतों ने बहुत कुछ सकारात्मक भी रचा है। नार्थ यूरोप के इस बड़े फैशन वीक में एक बात तो शिद्दत के साथ ज़िंदा हो रही है वो ये की सादा जीवन उच्च विचार। क्या खयाल है आपका।

Tuesday, February 9, 2010

राहुल कथायाम् प्रथमोध्याय:

राहुल गांधी…कौन राहुल गांधी? अरे इस देश में एक ही तो राहुल गांधी है। युवा राहुल गांधी। कांग्रेस का राहुल गांधी। सोनिया का लाल राहुल गांधी। चचा नेहरू का नाती राहुल गांधी। इंदिरा गांधी का पोता राहुल गांधी। राजीव गांधी का बेटा राहुल गांधी। और भी कुछ बताना पड़ेगा क्या। राहुल गांधी अब ‘बबुआ’ नहीं रहा बड़ा हो गया है समझदार हो गया है। राजनीति समझने लगा है। अब वो प्रेस को देखकर भकुआता नहीं है। बल्कि गुर्राता है भकाभक अपनी बात कहता है। ये अलग बात है कि उसकी बात भले ऐसी लगे कि किसी बच्चे को “लघुसिद्धांत कौमुदी” के कठिन सूत्र रटा दिए गए हों। कांग्रेस के नेता अभिभूतो हो रहे हैं। गदगद हो रहे हैं उनकी डूबती नइया को पार लगाने के लिए फिर से गांधी परिवार का एक युवा धरती पर आ चुका है। दुकानदारी बंद नहीं होगी।
सभी नेता घर के इस बबुआ की बालक्रीड़ा को देखकर छहा रहे हैं। आ हा हा...बबुआ कितना समझदार हो गया है...देखो तो...अले ले ले...वाह वा वा....

बबुआ भारत के चक्कर लगा रहा है। वोटबैंक साध रहा है। दलित बस्ती में जाकर रात गुज़ार रहा है हमें इत्मीनान से सोने दे रहा है। लोगों को बता रहा है भारत एक है। कितना समझदार है। अभी तक किसी ने कही थी ये बात वाह वा...वाह वा...

अरे बबुआ तो हीरो भी है चॉकलेटी फेस देखकर लड़कियां फिसल रही हैं। हां भई कितना खूबसूरत चेहरा है बाबा का। राहुल बाबा....प्यारे राहुल बाबा....सभी अभिभूत हैं। देखो तो कितना गज़ब का भाषण देता है। अरे थोड़े ही देता है ये तो अलग ही शैली है वो ज्ञान देने में .यकीन थोड़े ही करता है वो तो ‘इंटरएक्ट’ करता है। लोगों से सवाल पूछता है जवाब मांगता है। अले ले ले कितना प्यारा लगता है। जब बांह चढ़ाकर बड़ों जैसे बातें करता है। कहता है कि अब युवाओं को राजनीति में आना चाहिए। कहता है कि परिवारवाद नहीं चलेगा। कहता है बस बहुत हुआ। वाह वा...वाह वा...वाह वा।

दिग्विजय सिंह अभिभूत हैं...महासचिव अभिभूत हैं...रीता बहुगुणा तो ऐसा लगता है बालक्रीड़ा को देखकर सम्मोहित होती जाती हैं। राहुल बाबा ने हैलकॉप्टर उतारा...ज़ीरो विज़िविलिटी थी। पर अपने लोगों से मिलने के लिए जान की परवाह नहीं की। पायलट ने मना किया नहीं माने बोले उतारुंगा...न न न मैं तो यहीं उतारूंगा। और उतार दिया हेलीकॉप्टर ज़ीरो विज़िबिलटी में। अद्भुत...चमत्कार हो गया...प्रभू ये सक्षात आप हैं....भगवन ‘कलकी’ अवतार तो नहीं हो गया...वाह वा वाह वाह वा।


मनमोहन का तो मन मोह लिया है राहुल बाबा ने मनमोहन ने तो सोच भी लिया है कि उनका वारिस बस और बस राहुल बाबा ही होंगे। देखो तो कितनी समझ है राजनीति की सब जल रहे हैं हमारे हीरे को देखकर सच में लड़का हीरा है...हीरा....वाह वा...वाह वा....वाह वा।

सभी बालक्रीड़ा देखकर अघा रहे हैं। जैसे नंद के बेटे ‘लल्ला’ ‘कान्हा’ की बालक्रीड़ा देखकर अघा रहे थे। अरे देखो तो लल्ला को। अरे वाह कितना सुंदर है...कितना समझदार है...लल्ला भाग रहा है यहां से वहां लोग चिल्ला रहे हैं कान्हा कान्हा कान्हा।

पर मुझे एक बात नहीं समझ आ रही। कांग्रेसी गोपी बने सो ठीक। कान्हा प्रेम में अधर में अटके सो ठीक लेकिन मीडिया को क्या हो गया है। कभी-कभी लगता है कि ये कलयुग में कृष्णवतार कैसे हो गया। क्या कांग्रेसी देश की आगे की राजनीति कृष्ण की राजनीति से साधने की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी तो राम का नाम लेकर राजनीतिक ज़मीन साधती रही अब क्या परोक्ष रूप से कृष्ण लीला की बारी है। बीजेपी ने रामरथ को चलाया कन्याकुमारी से अयोध्या तक। बहुत कुछ हासिल हुआ, ये अलग बात है कि पार्टी एक भी राम को पैदा नहीं कर सकी, हां पार्टी को डुबोने वाले रावण कई पैदा हो गए। आज पार्टी किनारे लग चुकी है। तो क्या कांग्रेसी राहुल बाबा को कृष्ण की छवि पढ़ाकर मैदान में उन्हे उतार चुके हैं। आखिर ये फील गुड क्यों कराया जा रहा है। मीडिया एकदम से राग राहुल क्यो गाने में जुट गया है।

कहीं ये एक भारी सेटिंग तो नहीं है। ये अचानक क्या हो गया है। कोई आलोचना नहीं कोई क्रॉस इक्ज़ामिनेशन नहीं ‘न खाता न बही, राहुल कहें सो सही’ मीडिया क्या अपने मकसद से भटक गया है या भटकना चाहता है जानबूझकर। और भटका रहा है हमें भी।
राहुल गांधी बिहार जाते हैं कहते हैं कि मुंबई सबकी है। एनएसए के कमांडो जो 26/11 में आतंकियों से लड़े वो बिहारी थे...उत्तर प्रदेश के थे। क्यों कहने की ज़रूरत है ये बिहार में खड़े हो कर इस वक्त? तो ज़रूरत है क्योंकि बेवकूफ बनाना है वोट साधना है चुनाव में डूबती लुटिया बचानी है। ये वही राहुल गांधी है जो उस वक्त मुंबई में अपने किसी दोस्त की पार्टी में शिरकत कर रहे थे जिसवक्त मनसे के कार्यकर्ता मुंबई पहुंचे उत्तर भारतीय छात्रों पर हमले कर रहे थे। उस वक्त क्यों राहुल बाबा को इस पूरी घटना पर टिप्पणी करने की ज़रूरत नज़र नहीं आई। अभी हाल की बात लीजिए महाराष्ट्र सरकार ने टैक्सी ड्राइवरों के मसले पर एक कानून बनाया कि पंद्रह साल का ‘डोमेसाइल’ टैक्सी ड्राइवरों के पास होने पर ही उन्हे परमिट दिया जाएगा। तब क्यों नहीं कुछ बोला गया। कहा गया आलोचना की गई। राहुल बाबा तब क्यों शांत रहे।

आज़मगढ़ के संजरपुर में जाकर दिग्विजय सिंह (जिन्होंने मध्यप्रदेश में सत्ता से बुरी तरह से बेदखल होने के बाद बड़े रौबीले अंदाज़ में ये शपथ ली थी कि वो दस साल तक मध्यप्रदेश की राजनीति का रूख नहीं करेंगे और कांग्रेस के आम कार्यकर्ता के रूप में काम करेंगे) ने जो बटला हाउस इनकाउंटर पर बकबक की क्यों उसपर हमारे-आपके राहुल बाबा का कोई बयान नहीं आया। दिग्विजय तो बकबकाने के बाद होश में आ गए। दरअसल वोट साधे जा रहे हैं। हर दिशा में हर दिशा से। वोट साधने में कार्य मायने नहीं रखता कांग्रेसी समझ चुके हैं। अगर काम मायने रखता तो मंहगाई से त्राहि-त्राहि कर रही जनता दोबारा कांग्रेस को सत्ता तक नहीं पहुंचाती। मुंबई की लोकल में बैठकर राहुल बाबा बिहार के और यूपी के वोट एक साथ साध रहे हैं। राहुल को ये बात समझ में आ रही है या समझाई जा रही है कि यूपी-बिहार में वोट मुंबई से सधेंगे।

राहुल बाबा ने नाग-नथैया कर दी है। यमुना रूपी मुंबई में निवास करने वाले विषधर के सिर पर चढ़कर उसके जबड़ों को सिलकर ये जतला दिया है कि उनकी निगाह दरअसल कहीं और हैं। महाराष्ट्र तो पहले ही सधा हुआ है। लेकिन राहुल की नज़र हैं कहां इसका इंटरप्रटेशन कहीं नहीं है। किसी मीडिया में नहीं न प्रिंट में न ही दुकानदारी चला रहे न्यूज़ चैनलों पर। मुनाफा शायद यहां ज्यादा नज़र आ रहा है। मीडिया आंखे फाड़े मुंह फाड़े चिल्लाता रहा वाह वा वाह वा...वाह वा क्या बात है मुंबई की लोकल में सफर...राहुल का जवाब....अचानक चले गए लोकल में....लेकिन दूसरे दिन सब साफ हो गया मुंबई पुलिस के ही सबसे बड़े अधिकारी ने कहा सब प्लान हमें मालूम था हमने पूरी तैयारी कर रखी थी। मीडिया चिल्ला रहा था एसपीजी को भी खबर नहीं थी....वाह वा वाह वा...वाह वा।

‘सो मुंदौ आंख कतो कछु नाहीं’ की राह पर सब चल रहे हैं।

मीडिया तो ‘चारण’ की भूमिका में आ गया है। युवराज की जय हो....जय हो प्रभू की आवाज़ें आ रहीं हैं। नेशनल चैनल गदगद हैं युवराज की हर बात पर वाह वा...वाह वा..वाह वा...करते हुए। पर ये वाह वही अगर वास्तव में देश के लिए कोई मुक्कमल रोशन भविष्य देता हो तो मैं भी कहूं वाह वा। लेकिन भईया ऐसा कहीं होने नहीं जा रहा। लोग अगर राहुल बाबा की साफगोई पर मरे मिटे जा रहे हैं तो ज़रा इस सम्मोहन से जागिए। ये समय सोने का नहीं जागने का है। निश्चय करने का है कि हमें आखिर क्या चुनना है खूबसूरत फोटोजेनिक फेस....या फिर सधे रास्ते पर निखरता और निखरता भविष्य। पर क्या करें विकल्प भी तो नहीं हैं हमारे पास।

राहुल ने आजकल एक राग छेड़ा है वहीं राग ‘नब्ज़’ है। राग युवा। युवाओं को उठना होगा। पर राहुल की सरपरस्ती में नहीं खुद की टीम खड़ी करनी होगी। राहुल गांधी अपनी टीम खड़ी कर रहे हैं युवाओं की टीम....पर युवा नेता नहीं होंगे कार्यकर्ता होंगे। नेता वहीं होंगे। जतिन प्रसाद, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सरीखे युवा.....जिनकी जीन में राजनीति है।


इस जीन की बुरी बात ये है कि किसी को भी बर्दाश्त नहीं करती। कांग्रेस की राजनीति में एक म्यूचुअल अंडरस्टैडिंग है। गांधी परिवार प्रधानमंत्री या प्रधानमंत्री जैसी ताकत और रुतबा और बाकि मंत्री पुत्र उसके नीचे। बस। इसके आगे खड़ी पाई है यानि पूर्ण विराम। खैर....ये बात मीडिया न समझे ऐसा नहीं है....पर क्या करे सेटिंग से परेशान है। खबरों की सारी सेटिंग ही राहुल पर है। सभी चैनल चिल्ला रहे हैं...बड़े ब्रांड्स को वशीभूत कर लिया गया है लगता है। अब बस इंतज़ार उस दिन का है जब ये ब्रांडेड चैनल चलाएंगे राहुल की खबर पर एक स्टिंग.....

‘यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजांम्यहम्’

Thursday, February 4, 2010

निलय जी से एक मुलाकात

अभी कुछ दिनों पहले निलय जी से भेंट हुई। मेरे सहयोगी और अनुज अमृत के ज़रिए। निलय जी अद्भुत हैं उनकी बातचीत जितनी सहज और दिलचस्प हैं उनकी टिप्पणियां उतनी सटीक, गंभीर और प्रभावशाली ठीक उनकी कविताओं की तरह। उनका व्यक्तित्व संघर्षों ने गढ़ा है...चेहरे पर अपने आप पर फक्र करने की चमक है तो उनका बेबाकपन उनके सीधे सरल व्यक्तित्व का परावर्तन...उनके व्यक्तित्व में और चेहरे पर जाले नहीं हैं...आप आसानी से आरपार देख सकते हैं। अपनी बातों को और चेहरे को वो किसी 'नीले-चश्मे' से नहीं ढकते। बहरहाल, उनकी कुछ पंक्तियों को साधिकार रख रहा हूं।

किसी काम का नहीं इनका हरापन
मवेशी भी नहीं खाते इन्हें
पावँ रोपने की जगह नहीं जड़ों में
फलियों में जुगाड़ नहीं एक जून का
ये बीहड़ हैं
और बीहड़ों के बाड़ नहीं होते।

कुदाल होने से लोहा डरता है
बेट होने से लकड़ी
आग नहीं चढ़ती उनकी चमड़ी पर
उखाड़ फेको तो कफ़न पर फैलते हैं कमबख्त।

दो फसलों के बीच का परती समय है यह
खेत की चमड़ी चबाते कंधों तक चढ़ आये हैं बेहया
आँधियों की सरहद पर खड़े हैं पेड़
आसमान की और सर उठाये खड़ी हैं नीलगायों की पात
और उनकी खुरों की मिट्टी में
किसी नवजात को
जन्म देने के लिए ऐंठ रही है पृथ्वी की कोख।

--निलय उपाध्याय

Thursday, January 21, 2010

दिल्ली की सर्दी और थेथरई

रात में तकरीबन एक बजे के आसपास ऑफिस से घर के लिए निकला। रूटीन यही होता है साढ़े तीन बजे से रात के पौने एक तक ऑफिस और आखिरी बुलेटिन के बाद घर वापसी। ठंड जमा देने वाली थी कोहरे ने रास्ते पर चुनौतियां गढ़ दी थीं। यात्रा का योग धूमिल करने की पूरी योजना थी। लेकिन मीडिया के लोग ‘बेहया’ होते हैं। तो हम बेहयाई पर उतारू थे...गाड़ी घर की ओर दौड़ पड़ी थी। एफएम का संगीत गाड़ी में गूंज रहा था और उससे कहीं ज्यादा ऊंची आवाज़ें उड़ रही थीं ऑफिस की कुंठाओं को ओढ़े। फलां खबर...फलां ट्रीटमेंट...यानि थेथरई....थेथरई....और थेथरई।

ज़रा सोचिए अगर थेथरई शब्द का इजाद न हुआ होता तो बहुत सारे लोग करते क्या। काशीनाथ सिंह की काशी की अस्सी में थेथरई के लिए एक बनारसी टर्मिनोलॉजी है। कभी मौका मिले तो पढ़िएगा। खैर थेथरई चल रही थी पत्रकार खबरों को पेश करते हुए, लिखते हुए जागता है और खबरों के प्रसारित होने या फिर छपने के बाद चैतन्यता की अवस्था प्राप्त करता है। यानि तब उस पर थेथरई करने के स्कोप ढूंढ़े जाते हैं। अस्तु थेथरई चल रही थी। चूंकि कोहरा गज़ब का था लिहाज़ा हमारे ड्राइवर ने किनारा पकड़ना ही बेहतर समझा फुटपाथ की लकीर को देखता हुआ गाड़ी हांक रहा था और हम उसे रह रह कर स्पीड बढ़ाने पर हउंक देते थे। ठंड के ‘चरित्र’ पर भी बातचीत निकल पड़ी थी कि आखिर ठंड के इतना बिलबिलाने के पीछे मंतव्य क्या है। पहले शुरू हुई परिचर्चा फिर बहस और बाद में खालिस थेथरई। इसी बीच नज़र फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे पड़ी गठरियों जैसी कुछ चीज़ों पर जम गई। ध्यान से देखा तो ये इंसान थे। राजधानी दिल्ली का फुटपाथ और उसपर अपनी ज़िंदगी को आसमान के नीचे दांव पर लगाते इंसान।
मन ने झुठलाया कि ये इंसान तो नहीं होंगे। देश तरक्की दर तरक्की कर रहा है। इठलाती बलखाती अर्थ व्यवस्था ने प्रधानमंत्री से लेकर तमाम नेताओं परेताओं तक को सम्मोहित कर रखा है। वित्त मंत्री गोलगोल लहज़े में कहते हैं कि अर्थव्यवस्था एकदम सीधी है ऊपर की ओर। खुश होइए कि आप भारत में हैं। एहसान मानिए हमारे दिमाग का जिसने आर्थिक मंदी के दौर में भी चुनाव करा दिया, झारखंड में दो हज़ार करोड़ का घोटाला करवाया इसके बावजूद अर्थ व्यवस्था भन्नाट है। विपक्ष के तो बोल नहीं फूट रहे रह रह कर एक राग। चाहे वक्त भोर का हो, दोपहर का या शाम का मंहगाई मंहगाई। अरे भाई मंहगाई में भी इंसान ज़िंदा तो है और अरे हम तो ये कहेंगे जो भूख से मर रहा है वो इंसान ही नहीं है। अब देखिए क्या जंगल में कोई जानवर मरता है भला पहले भी तो इंसान जंगलों में ही रहता था। जो भूखों मर रहे हैं काहिल है सारे। हाथ पांव न चलाना पड़े सरकार रोटी दे दे। खैर....

तो फुटपाथ पर ज़िंदगियां बिखरीं हुईं थीं। ठिठुरती अकड़ती और ठंड से छुपती ज़िंदगियां। यहां से वहां तक कुछ इनमें भाग्य के धनी भी थे जिन्हे बस स्टाप की छत रात में नसीब हो गई थी। भईया अपना अपना भाग्य। एक युवराज आजकल मुख्तसर अंदाज में घूम रहे हैं। यहां वहां घूम घूमकर अघा रहे हैं और कहते हैं तुम भी अघाओ कि कांग्रेस का राज है। कलावती की झोपड़ी से, दलित बस्ती में बैठ कर कलेवा करते, या फिर बुंदलेखंड की धूल में ‘पक्की’ ज़मीन ढूंढ़ते युवराज युवाओं को ढूंढ़ रहे हैं। कह रहे हैं बहुत हुआ परिवारवाद अब ‘फ्रेश एंट्री’ होगी। काश कि दिल्ली के फुटपाथ पर ठंड से अकड़ते ठिठुरते इन लोगों में कोई युवा होता। लेकिन यहां ज्यादातर तो बूढ़े बुज़ुर्ग, महिलाएं या बच्चे ही नज़र आ रहे हैं। और फिर ये ‘गैर इंसान’ होंगे भी कितने…अब जितने भी हों वोट बैंक तो नहीं हैं न तो छोड़िए साहब मरने दिजिए।

शीला आंटी क्या क्या देखेंगी। उनकी भी तो उम्र का लिहाज़ करिए। अब देखिए न एक सिरदर्द हो तो...कभी बसों में आग लगनी शुरू होती है तो थमती ही नहीं। अभी जनता को ‘मेट्रो फील’ देने के लिए बढ़ाया तो है दाम बिजली का, पानी का, सड़क पर चलने का। और फिर कॉमन वेल्थ गेम का बोझा पड़ा है सो अलग। सफाई करानी है बड़े पैमाने पर। सड़कें बन रही हैं। रंग रोगन हो रहा है कम नहीं है क्या। कॉमन वेल्थ गेम के पहले तक खूबसूरत लुक देना है राजधानी को। ये लक्ष्य है ‘एम’ है सो मुख्यमंत्री जी लगीं हुईं है। झुग्गियां हटाई जा रही है ‘पैच’ है ये सब विकास की तस्वीर में। मैं फुटपाथ से काफी आगे निकल आया हूं अब वहां कुछ दिख नहीं रहा है कोहरा और घना हो गया है। अब समझा मंत्री क्यों ‘सन्न’ से गाड़ियों से निकलते हैं फुटपाथ पर नहीं चलते। डर लगता होगा शायद कि ऐसा न हो कि पैदल चलें, फुटपाथ पर घूमें तो ‘बुद्ध’ जाएं। लेकिन उसके लिए भी तो पहले इंसान बनना होगा न। वो बचा कहां है साहब न वो फुटपाथ पर है, न सड़कों पर, न गांवों में, न शहरों में....और संसद तो इंसान-प्रवेश वर्जित क्षेत्र है। वहां ‘थेथर’ पहुंचते हैं, उच्च स्तरीय ‘थेथरई’ का आनंद लेना हो तो वहां का रूख करिए।