Thursday, March 18, 2010

परतें...


कुछ तो याद है
कुछ भूल गया हूं...
जो भूल गया शायद वो ज़रूरी था
बिल्कुल उबलते पानी की तरह
एक एक कर सतह उड़ती रही
हर परत जो आज थी, अभी थी
मिटती रही
मिटाना ज़रूरी था नया लिखने के लिए

पर आजकल...
एक अजीब सी मुश्किल है
सपने थकाने लगे हैं...
सपने गहरी नींद से जगाने लगे हैं
सपनों में वो परतें दिखती हैं...
सपनों में वो परते घेरती हैं
परतें दरकी हुई नज़र आती हैं
बेज़ार सी...

उन परतों को हटाकर
बहुत कुछ चुनता हूं...
बहुत सारे उजाले मुट्ठियों में भरता हूं
पर जब आंख खुलती हैं...
मुट्ठियां भिंची होती हैं
खाली मुट्ठियां...
आजकल न जाने क्यों, सुबह जागने से होती है...

Friday, March 12, 2010

मैं मीडिया हूं...



मेरा दम घुट रहा है
अक्सर सोचता हूं तो...
दिमाग की नसें तन जाती हैं
मैं अपनी सूरत से खुश था
तसल्ली थी, सूकून था...
हांलाकि वो चेहरा भी दूसरों ने ही गढ़ा था
पर चेहरा सबका था, सबकी पीड़ा थी
सबकी खुशी भी...
कभी मुझे अपने इस चहरे से परहेज नहीं हुआ
जिन्होने मुझे चेहरा दिया था
ईमानदार लोग थे...मेरे हिसाब से।
सब मिशन पर थे....
आज़ादी, समाज और लोग उनके सरोकार थे
फिर समय के साथ मेरे चेहरे को रंगा गया
मुझे बाज़ार के लायक बनाया गया...
क्या बोलना है...क्या दिखाना है
समझाया गया...
ये लोग नए थे, चेहरे नए थे...
हर रोज़ एक चेहरा आता
मुझपर एक चेहरा लगाता, चला जाता
मैं खुद अपना चेहरा भूलने लगा
सही और गलत के तर्क में झूलने लगा
अब मैं बदल चुका हूं...
आम आदमी कहता है
कितना गंदा चेहरा है मेरा
कितना छिछला
मसखरे जैसा भी लगता है कभी-कभी
पर....
किसपर लगाऊं मेरे चेहरे को ऐसा बनाने का इल्ज़ाम
मैं उनकी शिनाख्त नहीं कर सकता है
हां इतना ज़रूर है कि मैं बिकता खूब हूं
और लोग
गालियां देकर भी मुझे खरीदते हैं
मेरी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई...
पर अक्सर...जब सांसे कम पड़ती हैं.
सर भिन्नाता है
अपने असल चेहरे को देखने के लिए
मन छटपटाता है...
तो लगता है सबके खिलाफ़
दर्ज़ कराऊं एफआईआर....
पर किसके खिलाफ....
मैं उन्हे पहचानता नहीं
क्योंकि वो जब भी मिले,एक नए चेहरे के साथ मिले

Sunday, March 7, 2010

मैं ज़िंदा हूं...


कलम बुझ रही है
नहीं, कलम बिक रही है
कलम ज़िंदा नहीं अब
हरारत होती जो जिस्म में...
तो लिखती, बोलती, उधेड़ती

नहीं, कलम ज़िंदा है पर टूट गई है...
तस्वीरें ज्यादा बोलती हैं
तस्वीरें जो अच्छी लगे
कलम ने एक समझौता किया है
उससे, जिसने उसे ज़िंदा रहने का मौका दिया है
सांसे चल रही हैं 'वेंटिलेटर' पर...

कलम चीख नहीं सकती
कलम अवसाद ओढ़े है
कलम लिखे तो खून रिसता है
कलम ज़ुबां ढूंढ़ती है
सुना है कलम ने ज़िंदगी को गिरवी रख
सांसे खरीदी हैं

नहीं, कलम नहीं मरी
अब वो हाथ नहीं हैं
जिनमें ज़िंदगी की जुंबिश थी
हर आदमी के दर्द की खलिश थी

दरअसल मरा वो आदमी है
जिसके साथ उसने बना लिया था
एक मरासिम...
कलम बुझेगी नहीं
वो लौटेगी...
गर वो आदमी लौटेगा

आदमी शिकारी है!


तरकश हर शख्स रखता है
और तीर भी
पर ज़रूरी नहीं कि
हर तीर ज़हर बुझे हों...

कुछ लोग तरकश में
बिना नोक वाले तीर रखते हैं
चोट तो लगती है, जान नहीं जाती
और इंसानों के कभी शिकारी होने की
पहचान नहीं जाती...

Wednesday, March 3, 2010

आपके लिए...



1.
चिंगारियां पानी से नहीं बुझतीं
न कभी थकती हैं...
चिंगारियां मन में दबी हों...
तो मन भी नहीं थकता

चिंगारियां गुंजाइश रखती हैं
हर दौर में खुद के आजमाइश की
चिंगारियां जंगल की आग बुझा सकती हैं...
और सांस ले लें तो पूरा शहर जला सकती हैं...

तो चिंगारी को सहेजेंगे क्या
खुद में चिंगारी बोएंगे क्या...
शर्त है ज़मीन उपजाऊ होनी चाहिए...
आग के भड़कने की भी गुंजाइश होनी चाहिए...



2.
अगर लगता है कि...
नई शुरूआत के लिए...
ज़रूरी है आग लगाना
तो जला दो न सब..

अगर लगता है कि
कि तंत्र खंडहर बन गया है...
तो, ढहा दो न सब...