दुनिया विकास से जलती है। नहीं। दुनिया विकास करने वाले से जर बुताती है। बताइए ऐसा घोर कलयुग है कि कहने को नहीं। बेचारा बिहार था क्या। पंद्रह साल तक जंगल राज था। तब हिंया से हुंआ बिहारी दउड़ते थे। दउड़ने में भी लोचा था। सड़क ‘खरबुदही’ (मतलब चिकनी नहीं) थी। अब देखिए एकदम लकालक। कहीं चले जाइए मुंह उठाए। मुंह नीचे करके सड़क देखने की ज़रूरत नहीं है। बस धउड़ते जाइए पड़ाक-पड़ाक। ये सब कैसे हुआ? ऐसे हुआ कि आपने यानी बिहार की जनता ने नीतीश कुमार में भरोसा जताया। कहा लो भइया करो विकास। और विकास होने लग गया भाकाभक। विकास दर , दर-दर बांट दी गई। लो रट लो। बाहर कोई बिहारी कहके लताड़े तो समझा देना। हमने समझ लिया रट लिया। बाहर कोई बकबकाया तो हमने समझाया। अब आगे सुनिए।
एक दिन बिहार के सुशासन के फाउंडर को कहते सुना। “खूब पीजिए जितना मर्जी हो पीजिए जगह-जगह इसलिए मधुशाला की व्यवस्था कर दी है, पीजिए लेकिन पैसा देकर।” सुनके पुत्तू पांणे बमक गए। इ का बात हुआ मुख्यमंत्री कह रहा है दारू पीजिए। तब पुत्तू पाणे को समझाया गया था आप विकास की बात नहीं समझेंगे। “तो क्या विकास दारू से होता है।” पुत्तू पाणे ने पूछा था। सब उनके ऊपर पिल पड़े। “अब सुशासन बाबू कह रहे हैं तो होगा ही” बात आई गई हो गई। इस बीच दनादन मधुशालाएं खोली गईं। विकास होने लगा। लठैत-बलैत ‘बियर शॉप’ खोलने लगे। समाज विकास को ‘बियर’ करने लगा। जिन लोगों ने नए दौर के विकास की खिलाफत की उनकी विकास की गंगा बहा रहे ‘बियरों’ (धनभालू) ने भरहीक खातिरदारी की। इसमें समाजवाद का खयाल रखा गया हर उम्र, हर जाति, हर मजहब, हर लिंग को एक दृष्टि से देखते हुए उनकी पुष्ट सुताई की गई। आखिर ये सरकारी काम में बाधा जैसा था।
पुत्तू पाणे अखबार हाथ में लिए दनदनाते हुए दालान में पहुंचे। “गुरू बाहर निकलो।” आवाज़ सुनके लगा कि जैसे अपने उधार की वसूली करने आए हों और नहीं दिया तो खैर नहीं। मैंने कमरे की खिड़की से झांकते हुए चुप रहने का इशारा किया और कहा बस आया पाणे जी। नीचे पहुंचा तो उन्होने तड़ से अखबार मेरे हाथ में थमाते हुए कहा- “लो देखो विकास दू दर्जन से ज्यादा लोग निपट गए दारू के चक्कर में। अब बोलो?”
दरअसल पत्तू पाणे जैसे लोगों की समस्या यही है। नज़रिए का फर्क है। विकास के एजेंडे को और उसके रास्ते को आम आदमी और पुत्तू पाणे जैसे टुच्चे मध्यमवर्गी लोग कभी नहीं समझ सकते। ये लोग ये समझते हैं कि विकास ऐसे ही हो जाता है। गंवार कहीं के। अरे विकास के लिए बलिदान देना पड़ता है। हर डिपार्टमेंट विकास की राह में बलिदान मांगता है ये एक बड़ा यज्ञ है भाई। अब देखिए किसी न किसी की बलि तो देनी पड़ेगी न। ये तो भारतीय परंपरा का हिस्सा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में विकास हो रहा है हर साल दो सौ लोग करीब-करीब अपनी बलि देते हैं। स्वेच्छा से। कोई दबाव नहीं होता कि भईया दो ही। ये जानते हुए कि ‘इनसेफेलाइटिस’ को समझने और जानने तक में ही सरकारी डॉक्टर उनको निपटा देंगे वो पहुंचते हैं सरकारी अस्पतालों में।
अपराध को रोकने को लेकर विकास हो रहा है। लेकिन ज्ञानी व्यक्ति ही इसे समझ सकता है। रामचरित मानस की पंक्ति याद करिए ‘जस जस सुरसा बदन बढ़ावा, तास दून कपि रूप दिखावा।’ अरे मूरख अपराध बढ़ेगा तभी तो पुलिस डबल रूप दिखाएगी। ठीक वैसे ही दारू के ठेके खुलेंगे तो सरकारी खजाने में खनखन होगी। सरकारी खज़ाना भरेगा तभै तो विकास होगा। हां एक विनम्र निवेदन सुशासन बाबू से, कि उन्हे एक बयान जनहित में जारी करना चाहिए देखो भइया अगली बार से ब्रांडेड लो। नहीं तो पुत्तू पाणे ‘इमोशनल फूल’ जैसे लोग कहीं विकास की इस गंगा को नज़रिया न दें मुंए।
एक दिन बिहार के सुशासन के फाउंडर को कहते सुना। “खूब पीजिए जितना मर्जी हो पीजिए जगह-जगह इसलिए मधुशाला की व्यवस्था कर दी है, पीजिए लेकिन पैसा देकर।” सुनके पुत्तू पांणे बमक गए। इ का बात हुआ मुख्यमंत्री कह रहा है दारू पीजिए। तब पुत्तू पाणे को समझाया गया था आप विकास की बात नहीं समझेंगे। “तो क्या विकास दारू से होता है।” पुत्तू पाणे ने पूछा था। सब उनके ऊपर पिल पड़े। “अब सुशासन बाबू कह रहे हैं तो होगा ही” बात आई गई हो गई। इस बीच दनादन मधुशालाएं खोली गईं। विकास होने लगा। लठैत-बलैत ‘बियर शॉप’ खोलने लगे। समाज विकास को ‘बियर’ करने लगा। जिन लोगों ने नए दौर के विकास की खिलाफत की उनकी विकास की गंगा बहा रहे ‘बियरों’ (धनभालू) ने भरहीक खातिरदारी की। इसमें समाजवाद का खयाल रखा गया हर उम्र, हर जाति, हर मजहब, हर लिंग को एक दृष्टि से देखते हुए उनकी पुष्ट सुताई की गई। आखिर ये सरकारी काम में बाधा जैसा था।
पुत्तू पाणे अखबार हाथ में लिए दनदनाते हुए दालान में पहुंचे। “गुरू बाहर निकलो।” आवाज़ सुनके लगा कि जैसे अपने उधार की वसूली करने आए हों और नहीं दिया तो खैर नहीं। मैंने कमरे की खिड़की से झांकते हुए चुप रहने का इशारा किया और कहा बस आया पाणे जी। नीचे पहुंचा तो उन्होने तड़ से अखबार मेरे हाथ में थमाते हुए कहा- “लो देखो विकास दू दर्जन से ज्यादा लोग निपट गए दारू के चक्कर में। अब बोलो?”
दरअसल पत्तू पाणे जैसे लोगों की समस्या यही है। नज़रिए का फर्क है। विकास के एजेंडे को और उसके रास्ते को आम आदमी और पुत्तू पाणे जैसे टुच्चे मध्यमवर्गी लोग कभी नहीं समझ सकते। ये लोग ये समझते हैं कि विकास ऐसे ही हो जाता है। गंवार कहीं के। अरे विकास के लिए बलिदान देना पड़ता है। हर डिपार्टमेंट विकास की राह में बलिदान मांगता है ये एक बड़ा यज्ञ है भाई। अब देखिए किसी न किसी की बलि तो देनी पड़ेगी न। ये तो भारतीय परंपरा का हिस्सा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में विकास हो रहा है हर साल दो सौ लोग करीब-करीब अपनी बलि देते हैं। स्वेच्छा से। कोई दबाव नहीं होता कि भईया दो ही। ये जानते हुए कि ‘इनसेफेलाइटिस’ को समझने और जानने तक में ही सरकारी डॉक्टर उनको निपटा देंगे वो पहुंचते हैं सरकारी अस्पतालों में।
अपराध को रोकने को लेकर विकास हो रहा है। लेकिन ज्ञानी व्यक्ति ही इसे समझ सकता है। रामचरित मानस की पंक्ति याद करिए ‘जस जस सुरसा बदन बढ़ावा, तास दून कपि रूप दिखावा।’ अरे मूरख अपराध बढ़ेगा तभी तो पुलिस डबल रूप दिखाएगी। ठीक वैसे ही दारू के ठेके खुलेंगे तो सरकारी खजाने में खनखन होगी। सरकारी खज़ाना भरेगा तभै तो विकास होगा। हां एक विनम्र निवेदन सुशासन बाबू से, कि उन्हे एक बयान जनहित में जारी करना चाहिए देखो भइया अगली बार से ब्रांडेड लो। नहीं तो पुत्तू पाणे ‘इमोशनल फूल’ जैसे लोग कहीं विकास की इस गंगा को नज़रिया न दें मुंए।
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