“बनरसिया कुल बरउरायल हउवन। बउरहट एही से समझा कि ”हर हर महादेव अब हर हर मोदी हो गयल।”….. ” नहीं भइया अइसा नहीं है, बनारसी चढ़ा के उतारता है। नहीं उतारता तो बस महादेव को। हवा में मत रहिए जमीन सूंघीए और राजनीति पकड़िेए जब तक आप पकड़बा बनारसी निकल जाई अब हिलावत रहा घंटा…। इ हौ रजा बनारस। बाबा की परसादी घोंट कर विपत पाणे ने ज्ञान फेंका।
टीवी पर बहस चल रही है। हरियर कुर्ता में तोता मतिन बीजेपी नेता अशोक सिंह ने पादा- “अरे हवा बहत हौ मोदी…मोदी के सामने के कूदी…?” तभी समाजवादी मनोज यादव भोकरते हुए भइयालाल की दुकान में दाखिल हुए- “न दायम न बायम देखो, चरित्तर एक मुलायम देखो।”
बनारस अइसहीं चलता है। चलता रहा है और रहेगा। बड़े बड़े बोकरादी देने वाले दिल्ली लखनऊ न जाने कहां-कहां चले गए। पर बनारस छूटता है कभी? न छूटेगा। हमें लंठ कहिए, बकलोल कहिए, उजड्ड कहिए, आपकी मर्जी, हम तो ऐसे ही हैं। ऐसे ही रहेंगे। राजा बस एक है राजा बनारस। देव बस एक है महादेव। धर्म ? होंगे कई। दंगों में होते भी हैं कई। पर हमारा धर्म बनारस है। मेरी चाय खतम हो गई थी। अशोक पाणे बीजेपी की हरियरी समझा रहे थे। अब तक चुप बैठे कांता प्रसाद जो पेशे से अध्यापक हैं। जो अभी थोड़ी देर पहले बाबा की परसादी घोंट कर आए हैं, गूढ़ ज्ञान देते हैं।
“दम नहीं है न मोदी में, वापस जइहैं गोदी में”
मनोज ने लपका- “का बात कहला चच्चा। अरे का असोक चच्चा अब बोला काहें बुता (बुझ जाना) गइला।”
“अबे ए मनोज तुम हों लौंडे। मुलायम के सहारे दिल्ली की बैतरणी पार करोगे? अरे ऐतनै दम रहल त काहें नाहीं कूद गईनअ अहिर राम काशी के अखाड़े में? किनारे-किनारे काहें माटी पोतत हउवन।” -अशोक पाणे चिहुंक के बिदके थे कल लवंडा लपट रहा था।
बाभन एही तो किए जिंदगी भर जरे, जराए, आग लगाए। खिखयाते हुए मनोज ने अशोक पाणे को पिनकाया।
“अबे मनोज बच्चा, हम ओ जमाना भी देखे हैं जब नारा लगा था ठकुरे क बुद्धि अहिरे के बल, झंडू हो गयल जनता दल। तुम्हारी पैदाइस भी नहीं रही…अ रही भी होगी तो कहीं हग के पानी के छू रहे होगे।”
“अरे ए भइयालाल भइया। पाणे चा के चाय पियावा एकदम कड़क। सरापे (श्राप देने )की तैयारी किए हैं। बाभन सराप देई त कहां जाई ई अहिर?”- मनोज ने चुटकी ली।
“अबे मूढ़ बुद्धि, बच्चे को बाप सरापता कहीं। अरे कहीं गलत रास्ते जा रहा हो तो हुरपेट के घर ले आता है। वही कर रहे हैं हम।” – अशोक पाण ने उवाचा और उवाचते गए-
“और वइसे भी इस बार बालक, सपा सफा है, क्यों कांता?”
“कहो असोक कब राजनीति कर रहे हो तुम?”
“यही करीब 30 साल से।”
“तुम गोदौलिया चौराहे पर बिइठे उ सांड़ हो, जिसे लगता है कि उ बइठा है, तो सब बइठे हैं। गोदौलिया से लगायत सिगरा अउर लहुराबीर जाम पड़ा है…पर सांड़ ससुर के…से।” – भंग की तरंग में उतरती आंखों के साथ कांता प्रसाद बोले
“मतलब ?”
“अरे एनके मतलब समझावा च्चा।” मनोज ने कांता को खोदा
“मतलब ये कि तुम हाफ पैंटिए हवा बांधने में माहिर होते हो। कंग्रेसिया सब गिरहकटी में। रही बात मोलायम की। इ त ससुर इस बार कउड़ी के दू हो रहे हैं लिख लो। सैफई में रंगीनी ने इनको मुजफ्फरनगर में नंगा कर दिया। जाएं जरा देवबंद वोट मांगने, छील दी जाएगी।”
“वही तो हम कह रहे हैं।” – अशोक पाणे ने टोका
“देखो पाणे टोकों नहीं।”- कांता प्रसाद बिदकते हुए सुरूर में उतरते बोले।
“अरविंद केजरीवाल को हल्के में मत लो। मौके मिलेगा रेल देगा। अ मौका मिल रहा है अगर कांग्रेस, अगर सपा, अगर बसपा ने अरबिंदवा को सपोर्ट दे दिया तो तुम्हारे मोदी जी दक्खिन लगे जाएंगे। ”
“अ चच्चा अंसरियो तो है”- मनोज ने हाथ बेंच पर टिकाते कहा
“न न…मोख्तार न जीत पइहन। करेंगे क्या ये कौम के लिए। अ कर क्या सकते हैं। वसूली? जब भदोही का कालीन उद्योग बंद हो रहा था तब कहां थे मोख्तार? मउ में बनारसी साड़ी, बनारस के जोलाहा भूखे मरने की नौबत तक पहुंच गए। अब मजहबी अफीम नहीं चलेगा गुरू। रोटी दो, सुरक्षा दो, विकास दो अउर वोट लो यही नारा है बस।”
“तो ? मोदी भी तो यही कह रहे हैं।” – अशोक पाणे फिर कूदे
“ए पंडित देखा अइसन हौ कि तू आज घोंटला कि नाहीं?” – कांता प्रसाद ने पूछा
“नाहीं गुरू आज परसादी छूट गयल घरे जाब तो घोटब”- अशोक पाणे दांत निपोरते बोले
“त घोंटा। फिर देखा। देखल चहबा त देखाई। कि दरअसल राहुल गंधिया, मुलायम सिंह हौ…मुलायम, मुख्तार हौ…अ मोदी मुलायम…। इ राजनीति हौ गुरू। जे आडवाणी के नाहीं सटे देहलस, जौने राहुल के चुनाव में हरिजन याद आयल खाना खाए बदे। जौन मुलायम सैफई में नंगई में डूबल रहलन…उ हम लोगों के लिए कुछ करेंगे? एह राजनीति में कुछ बचल हौ का। बूटी साधा मस्त रहा।”
“भइया लाल ने इशारा किया दुकान बढ़ावे के हव अब। अशोक पाणे ने कांता के कंधे पर हाथ रखा बोले चलो कांता। सपा नेता मनोज यादव अब तक बेंच पर बैठा था दोनों गालों पर हाथ रखे। अचानक उठा दौड़ते हुए अशोक और कांता प्रसाद के पास पहुंचा। अरे चच्चा…चला घरे छोड़े देईं।”
“अरे तू कहां जइबे हमहन चल जाइब”
“अरे गाड़ी हौ चार चक्का चला न”
“ए चच्चा आशीर्बाद बड़ी चीज है…बाकि त सब बिलाने के लिए है”
“वाह!”
यही है बनारस। यहां राजनीति और रिश्ते का घालमेल नहीं है। कहा न आपसे बनारसी चढ़ा के उतार देता है। इसलिए राजनीतिक ठगों सावधान। और रही बात दिल्ली में बैठे विद्वानों की तो काशी में संभलकर। यहां ज्ञानी हाथ में बारह हाथ का सोटा लिए चलते हैं। खाने को तैयार हों तो उलझे। यहां का नाऊ वाशिंगट डीसी का इतिहास समझा सकता है। पंडा बराक ओबामा के खानदान के पिंडदान का पूरा लेखा जोखा बता सकता है।
बनारस में न जाने कितने विनोद दुआ, पुण्य प्रसून, रवीश कुमार, प्रभु चावला और अंग्रेजी के अर्णब गोस्वामी, प्रणब रॉय आकर बिला गए। यहां ज्ञानी छाती पर चढ़कर अपना ज्ञान साट देते हैं। ये है बनारस। हल्के में मत लीजिएगा।
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यह किसी कविता या लेख का अंश लगता है जो बनारस और राजनीति के चारित्रिक दृष्टिकोण से है। कृपया बताएं कि आप किस प्रकार का
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