Wednesday, November 3, 2010

दरख्त सूखते नहीं...

दरख्त यूं सुखते नहीं...
दरख्त कभी सूखते नहीं
अगर उनको मिल जाती थोड़ी तसल्ली 
इस बात की...
कि अगर वो न रहे तो...
ज़मीन पर ज़िंदगी
सिकुड़ती चली जाएगी...
गर वो न रहे तो
नीड़ की जगह
बेहिस और रूखी इमारतों में होगी 
और गुरूर से तनी इमारतों में...
कभी ज़िंदगी नहीं पनपती...
दरख्त कभी सूखते नहीं...
गर बता देते उन्हें उनके होने की अहमियत...
गर वो न देखते उनके ऊपर तनती कुल्हाड़ियां
मैने सुना वो दरख्त टूटता हुआ
ये कहता रहा...
अब क्या रखा है इस जहां में...
जब एक इंसान नहीं पूरे मकां में...

रोटी...

रोटी...
जुगाड़ बन गई है                            
रोटी खिलवाड़ बन गई है
हड्डी के ढांचों पर राजनीति
अक्सर रोटी सेकती है...
तमाम दधिचियों की आहूति से...
हर रोज़ राजनीति चमकती है...
हर रोज़ किसी न्यूज़ चैनल पर...
इनकी खबरें वेश्या सी मचलती हैं...
सुनो अगर हो सके तो कान मत दो
मुल्ला, मस्जिदों में अज़ान मत दो
मंदिरों की घंटियों उतार फेंकों...
क्योंकि हर तरफ अस्थि पंजर फैले है...
शुभता का कहीं भी संकेत नहीं...
राजनीति में हर चेहरे

2 comments:

  1. बेहतरीन पंक्तियां हैं राकेश जी । बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं

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  2. गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...
    बहुत देर से पहुँच पाया ................माफी चाहता हूँ..

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