Saturday, January 8, 2011

(टूटे विचार कुछ...जो पता नहीं कहां से, किस तरह ज़ेहन में टूट कर गिरे...इनका कोई सिरा मिले तो बताइएगा...पिछले कुछ दिनों से मन में ऐसी ही टूटी तस्वीरें बनती रहीं...न मुकम्मिल लफ्ज़ मिला कोई...न ही स्पष्ट आवाज़ सुनाई दी भीतर से...फिर भी...)
1.
बेतरतीब नफ़रत...
करीने से सजी मोहब्बत...  
अच्छी होती है
उसने कहा...
दोनों अंजाम तक पहुंचते हैं...
चुनना क्या है...
ये फैसला आप पर...

2.
उलझनें इतनी न हों ज़िंदगी में
सही और ग़लत पास-पास दिखे
इतना तो रहे कि...
कह सकें...
ये सही है और ये ग़लत

3.
दर्ज हो रहा है सब
ये सोचकर क्या लिखोगे नहीं...
कहोगे नहीं...
चलो...ठीक है
सुनो तो सही...
तुम्हारे उजाले में
हर रोज़ कोई सेंधमारी कर रहा है
आग चूल्हों से नहीं उठ रही...
कोई घर जल रहा है...

3 comments:

  1. आग चूल्हों से नहीं उठ रही...
    कोई घर जल रहा है...

    धुआँ उठा था दीवाने के जलते घर से सारी रात
    लेकिन वो खामोश रहे दुनिया के डर से सारी रात

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  2. उलझनें इतनी न हों ज़िंदगी में
    सही और ग़लत पास-पास दिखे
    इतना तो रहे कि...
    कह सकें...
    ये सही है और ये ग़लत

    बेहतरीन है...

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  3. अंजना शर्माApril 5, 2011 at 1:42 PM

    बेतरतीब नफ़रत...
    करीने से सजी मोहब्बत...
    अच्छी होती है

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