Sunday, August 10, 2014

'ज़मीर' का स्टॉक


तिवारी जी पत्रकार हैं। करीब दो दशक से पत्रकारिता कर रहे हैं। सेना में जाने की योजना थी वैसी ही कद काठी के, और वैसे ही सक्रीय लेकिन आ गिरे पत्रकारिता में। बात करते हैं तो लगता है बटालियन को कमांड ही दे रहे हैं। मुझे उनका सानिध्य अक्सरहां प्राप्त होता है। वो आह्लादित होते हैं या नहीं मैं ज़रूर होता रहता हूं। हमारे बीच हांलाकि कुछ कॉमन नहीं। वो ज्यादा बालते है, मैं नहीं बोलता। वो ठठा के हंसते हैं मैं बमुश्किल खिखिया पाता हूं। वो सक्रीय हैं मैं अलहदी नंबर एक हूं। फिर भी हममें कुछ कॉमन भी है। जैसे हम दोनों ने कल्याण सिंह के शासन की परीक्षा देखी है। (यूपी के लोग समझ पाएंगे, उस वक्त नकल अध्यादेश लागू था पकड़े गए तो जेल, लिहाज़ा परीक्षा टाइट हुई थी और रिज़ल्ट भी टाइटै आया था।) और मेरी नज़र भी एक समय में सेना के कमीशंड ऑफिसर की पोस्ट पर थी। हां इस सबसे ऊपर एक और चीज़ कॉमन है वो है 'जमीर'। हम दोनों को ही ज़मीर अज़ीज़ है।
मुझे याद है जब गिरधारी की चाय की दुकान पर यूं ही तिवारी जी टकराए थे तो उन्होने कहा था, दोस्त तुम्हारी आवाज़ में सच्चाई है और तुम्हारी आंखों में ज़मीर की चमक है। इसे बचाकर रखना। आवाज़ में सच्चाई, आंखों में ज़मीर की चमक? वाह जी, मैं, मैं न हुआ भारत कुमार हो गया, या नाना पाटेकर। खैर तिवारी जी ने बड़ी ज़िम्मेदारी सौंप दी। ज़मीर बचा कर रखने की। मैंने 'जमीर' बचाना शुरू कर दिया। मैने उसके खर्च पर पहले लगाम लगाई। ज्यादा 'जमीर' खर्च होगा तो दिक्कत हो जाएगी। अब साहब 'जमीर' बढ़ने लगा। ये मेरा शगल बन गया। 'जमीर' को संभालना, सहेजना, बचाना।
कुछ दूसरे लोगों को भी पता चला कि मैं ज़मीर रखता हूं तो वो भी आए दरख्वास्त लेकर कि उनका भी रख लिया जाए। जितना भी है उन्हे बड़ा परेशान करता है। इसमें ज्यादातर लोग पत्रकार थे। एक दिन एक भाई साहब आए, बोले- बड़ा परेशान हूं 'जमीर' ने काम खराब कर रखा है जहां था दस साल बाद भी वहीं हूं, उसी तनख्वाह पर। मैने कहा तो आपको बॉस से बात करनी चाहिए। वो बोले- बात तो करूं पर वो है बड़ा बदमिज़ाज़ कुछ भी बोल देता है और फिर 'जमीर' आगे आ जाता है। सुना है आप रखते हैं ज़मीर। मेरी भी रख लीजिए, बड़ी कृपा होगी, देखिए मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं।
मैं आज तक समझ नहीं सका की आखिर 'जमीर' मुसीबत है या संपत्ति। खैर, मैं 'जमीर' सहेज रहा था, नौकरी कर रहा था। लेकिन अब एक दिक्कत होने लगी थी। दो कमरे के सेट में 'जमीर' का स्टॉक ज्यादा होता जा रहा था। पत्नी अक्सर खीझ उठती। एक रात मैने सपना देखा कि मेरे घर पर इन्कम टैक्स की रेड पड़ गई है। आईटी वाले लाट का लाट ज़मीर निकाले जा रहे हैं। पुलिस हथकड़ी चमका रही है। और अधिकारी मुझपर चढ़े जा रहे हैं, आय से अधिक संपत्ति हांए.....क्यों बे टुच्चे से प्रोड्यूसर, अबे कैसे जुटा लिया तूने इतना ज़मीर?
मैं अकबका कर उठ बैठा। हे भगवान कहीं सच में रेड पड़ी तो मैं तो सीधे अंदर....? आजकल 'जमीर' तो वाकई दुर्लभ वस्तु है। कहीं ऐसा न हो पुरातात्विक वस्तु की तस्करी के मामले में ही धर लिया जाऊं। बचैनी बढ़ गई। सुबह होते ही पहले तिवारी जी को फोन लगाया। पर बात हो न सकी। दिल की धड़कन दुरंतो एक्सप्रेस हो गई थी। भाग रही थी हचाक-हचाक। जो काम कई सालों से बीवी की डांट ने नहीं की थी सपने ने कर दिखाया था। अब मैं जल्द से जल्द 'जमीर' के इस ज़खीरे को ठिकाने लगाने की जुगत में था।
ऑफिस पहुंचा तो काम में मन लग नही रहा था। खौफ खाए जा रहा था कहीं रेड पड़ी, तो खुद ही खबर बन जाएंगे। ज़मीर वो भी एक टुच्चे से पत्रकार के पास। इज्ज़त तार-तार हो जाएगी। जग हंसाई होगी सो अलग। सोच ही रहा था कि अचानक सामने से आते हमारे 'अधिकारी' पत्रकार वर्मा जी दिख गए। मुझे लगा साक्षात भगवान मेरी मदद को उतरे हैं। मैं तुरंत उनके पास पहुंचा। नमस्कार किया, उन्होने उड़ता सा जवाब दिया। मैने कुर्सी खिसकाई और उनके पास बैठ गया।...न वो कुछ बोले, न मैने कुछ कहा....दो-चार मिनट यूं ही बैठे रहने के बाद हाथ मलते हुए मैने ही बात की शुरूआत की।
"सर, एक काम था आपसे"
"क्या काम" वर्मा जी ने आंखें तरेरते हुए पूछा
मैने सीधे ही बात रख दी। "सर, दरअसल मेरे पास 'जमीर' का स्टॉक ज्यादा हो गया है। अब डर ये लग रहा है कि कहीं रेड पड़ गई तो आय से अधिक संपत्ति के बारे में धर न लिया जाऊं। आप तो जानते ही हैं हमारी पोस्ट और तनख्वाह के लोगों का 'जमीर' रखना ग़ैरकानूनी है। तो सर अगर आप इसे रखे लें तो मेहरबानी होगी। आप कहें तो मैं खुद आपके पास पहुंचा देता हूं।"
अरे यार, कहां...। वर्मा जी ने सांस छोड़ते हुए कुर्सी पर पीछे टिकते कहा- यार बहुत मुश्किल से तो अपना स्टॉक खत्म कर पाया हूं मैं। गुरू तुमने एक गलती कर दी अगर समय-समय पर इसे निकालते रहते तो दस-बारह सालों में पूरा निकल जाता और ये दिक्कत भी नहीं होती। अब गलती की है तो सज़ा तो भुगतनी होगी। वैसे मुझे ताज्जुब हो रहा है कि इतने सालों बाद भी तुम्हारे पास 'जमीर' का इतना स्टॉक बचा है। कमाल है....- वर्मा जी ने व्यंग्यात्मक मुस्कान फेंकी।
एक उम्मीद बंधी थी पर हल नहीं निकल सका। बहुत कोशिश की पर 'जमीर' का ज़खीरा अब भी वैसे का वैसा ही रखा है। कोई हो तो बताइएगा। मैने देखा है कुछ 'जमीर' के पैकेट्स में घुन लगने शुरू हो चुके है। इससे पहले कि वो पूरे खराब हों किसी अधिकारी, नेता, पुलिसवाले, पत्रकार (अधिकारी), वगैरह के काम आ जाएं तो अच्छा। ये ज़रूर है कि अपना सामाजिक-आर्थिक स्तर देख कर ही लीजिएगा कहीं ऐसा न हो कि आप भी मेरी तरह किसी मुसीबत में फंस जाएं।
- राकेश पाठक

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