Thursday, February 4, 2010

निलय जी से एक मुलाकात

अभी कुछ दिनों पहले निलय जी से भेंट हुई। मेरे सहयोगी और अनुज अमृत के ज़रिए। निलय जी अद्भुत हैं उनकी बातचीत जितनी सहज और दिलचस्प हैं उनकी टिप्पणियां उतनी सटीक, गंभीर और प्रभावशाली ठीक उनकी कविताओं की तरह। उनका व्यक्तित्व संघर्षों ने गढ़ा है...चेहरे पर अपने आप पर फक्र करने की चमक है तो उनका बेबाकपन उनके सीधे सरल व्यक्तित्व का परावर्तन...उनके व्यक्तित्व में और चेहरे पर जाले नहीं हैं...आप आसानी से आरपार देख सकते हैं। अपनी बातों को और चेहरे को वो किसी 'नीले-चश्मे' से नहीं ढकते। बहरहाल, उनकी कुछ पंक्तियों को साधिकार रख रहा हूं।

किसी काम का नहीं इनका हरापन
मवेशी भी नहीं खाते इन्हें
पावँ रोपने की जगह नहीं जड़ों में
फलियों में जुगाड़ नहीं एक जून का
ये बीहड़ हैं
और बीहड़ों के बाड़ नहीं होते।

कुदाल होने से लोहा डरता है
बेट होने से लकड़ी
आग नहीं चढ़ती उनकी चमड़ी पर
उखाड़ फेको तो कफ़न पर फैलते हैं कमबख्त।

दो फसलों के बीच का परती समय है यह
खेत की चमड़ी चबाते कंधों तक चढ़ आये हैं बेहया
आँधियों की सरहद पर खड़े हैं पेड़
आसमान की और सर उठाये खड़ी हैं नीलगायों की पात
और उनकी खुरों की मिट्टी में
किसी नवजात को
जन्म देने के लिए ऐंठ रही है पृथ्वी की कोख।

--निलय उपाध्याय

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