Wednesday, August 11, 2010

सोच को लगाम...

प्रिय मित्र,
माफ किजिएगा आज से सोचना बंद कर रहा हूं। ये एहद है जो उठा रहा हूं। सोचा कि आखिर सोच कर उखाड़ क्या लूंगा। और जो सोचते थे उन्होने क्या उखाड़ लिया। सोचने समझने विचारने और उसको उतारने के लिए बड़े लोग बैठे हैं कांपते हुए सिंहासन पर जिनके पेट में अक्सर हौल उठती है अगर कोई और सोचता है या करता है। तो भईया सोचा कि क्यों उनकी पेट की हौल को बढ़ाकर अल्सर में कन्वर्ट किया जाए। वैसे सोचने के दायरे इनके पास कई तरह के होते हैं। ये दायरे कई पैरामीटर  के आधार पर बनते हैं। आलोचनाओं से ये सोचने वाले, कांपते सिंहासन पर बैठे इंद्र हड़कते हैं। खैर...तमाम तजुर्बों के मद्देनज़र इस फैसले पर पहुंचा कि सोचने इन्ही को दिया जाए। अपन मस्त रहें।

मेरे बाबा के ज़माने में कई प्रकार के लोग घर पर आते थे। चूंकि बाबा बनारस के जानेमाने ज्योतिषी थे लिहाज़ा लोग उनके पास तरह-तरह की समस्याएं लेकर आते और मैं बाबा के साथ बैठक में बैठकर बाबा की ज्योतिषीय गणित की खट-खट उनके स्लेट पर सुनता। मुझे लोगों की समस्याओं में न रूचि न उनको समझने के अक्ल हां जो मुझे अच्छा लगता था वो बाबा के स्लेट से निकलती खट-खट थी। बाबा की स्लेट मुझसे बड़ी थी और खासी चिकनी। मैं जब पूछता  कि बाबा मेरी स्लेट ऐसी क्यों नहीं है तो वो कहते जितना पढ़ोगे लिखोगे उतनी चिकनी स्लेट होती जाएगी। सो उसपर ज्यादा पढ़ा लिखा तो नहीं हां चित्रकारी खूब की। और कोशिश यही रही कि खट-खट की आवाज़ ज़िंदा रहे। इसके लिए भी खूब सोचा था मैंने कि आखिर जुगाड़ क्या हो कि पढ़ाई भी न करनी पड़े और स्लेट चिकनी भी हो जाए।

हां तो मैं बता रहा था कि बाबा के ज़माने में कई तरह के लोग (अलग-अलग डिज़ाइन वाले), घर पर आते रहते थे। उनमें एक थे फेंकू राम। फेंकूराम बेसिकली एक छोटा से प्रेस चलाते थे और बाबा का पंचाग उसी प्रेस से निकलता था। फेंकू जी छोटे कद के सिमटे हुए बड़े आदमी थे। कुर्ता-धोती मुंह एक तरफ पान के बीड़े से फूला हुआ और काले फ्रेम वाला चश्मा और मोटे ग्लास के पास से झांकती उनकी एक्स्ट्रा बिग आंखें। उनकी आवाज़ में बेस भी था और नाक का असर भी। उनकी सिकड़ी खटखटाने की आवाज़ (मेरे घर के मोटे दरवाज़े में दो खट-खटाने वाने गोल सिकड़ी लगी हुई है।) खास थी शायद उनकी आवाज़ से मिलती जुलती या उनकी पर्सनालिटी से, ज़ोर-ज़ोर से पर छोटे-छोटे कई खंडो में वो खड़खड़ाते थे। मैं सन्न से दौड़ पड़ता फेंकू आए...फेंकू आए करके।

दरवाज़े को खोलते ही फेंकू राम जैसे गदगद हो जाते लगता कि उनकी आंखे इस बात को सोचकर आश्वस्त हो जातीं कि कम से कम मैं उनसे छोटा ही हूं। पान का लाल रंग चढ़े दांत दिखाते पूछते "पंडित जी हउवन?"  मुझे फेंकूराम किसी दूसरी दुनिया से आए बहुत ही प्यारे कैरेक्टर लगते थे। छोटा सा चेहरा सलीके से कढ़े हुए तेल लगे बाल। होठों पर पान का रंग और काले-लाल-सफेद दांत। और हां पैरों में पंप शू, कंधे पर लाल रंग का गमछा। लेकीन इस सब के अलावा एक खास बात और भी थी वो थी उनके पेशानी पर उभरी हुई तीन-चार लकीरें। ये मेरे लिए सवाल थीं कि आखिर इनके चेहरे पर ये लाइनें कहां से आईं। बाबा से पूछ लिया एक दिन तो उन्होने बताया कि फेकू राम ज्यादा सोचते हैं। ज्यादा सोचना नहीं चाहिए बल्कि करने में यकीन करना चाहिए। तब बालमन ने ये एहद उठाई थी कि ज्यादा सोचूंगा नहीं बल्कि करुंगा। पर वक्त ने अपनी तमाम परतों में इस अहद को दबा दिया था।

फेंकूराम जब भी घर आते मैं उनको बैठक में बैठाता और दौड़ कर बाबा को खबर करता। बाबा को मेरा बड़ों जैसे ज़िम्मेदारियां उठाना किसी मनोरंजन से कम नहीं लगता और मुझे बाबा के साथ बैठक में बैठकर फेंकूराम को निहारना। बाबा के न रहने के बाद फेंकूराम का आना भी धीरे-धीरे कम हो गया। कभी-कभार बाबूजी से मिलने आए फिर न जाने कहां गुम हो गए। ऐसे ही कई कैरेक्टर थे, जो न जाने क्यों याद आते हैं जिन्हे बाहर की दुनिया के इंट्रोडक्शन के दौरान देखा। जो किसी काल्पनिक दुनिया के पात्र थे।

उस वक्त जब खुले आंगन में गर्मी के दिनों में हल्के ठंडे बिस्तर  पर सोते हुए अंधेरे आसमान में टंके सितारों को देखता तब भी सोचता था आखिर क्या है ये सब, कितना है सब...कहां तक है सब....सारे चेहरे जो दिनभर मिलते वो घूमते ज़ेहन में फिर नींद आकर न जाने कहां ले जाती उन्हे। मेरे सवालों के जवाब बाबा से लेकर बाबूजी, भईया और जीजी, दादी और अम्मा तक सबके पास होती। सरल जवाब जो एकबार में समझ आ जाता था। पर अब न जाने क्या हो गया है सवालों के जवाब नहीं मिलते। मिलते हैं तो उलझे। रिश्ते भी अब कितने पेचीदा हो गए हैं अचानक। सोचना तब भी चलता था आज भी चलता है, आप ही बताइए जो आदत बचपन की हो वो भला कैसे छूट सकती है।

तो साहब मन नहीं मानता फिर सोचने लग जाता हूं कि रोटी ने कितना मजबूर कर दिया है। अब अपने शहर की हरारत महसूस नहीं होती। घर लौटता हूं तो लगता है मेरा शहर मुझे बुझी आंखों से टटोल कर पहचानने की कोशिश कर रहा है। पर वहां रह भी नहीं पाता क्योंकि सपनों की दुनिया से आनेवाले सारे कैरेक्टर धुआं हो चुके हैं। मेरे शहर के हर मोड़ में इतना पैनापन आ चुका है कि थोड़ा सा चूके तो सीधे ज़ख्मी होने का ख़तरा है।

खैर...देखिए बातों बातों में इतना सोच गए। चलिए इस सोच को यहीं लगाम लगाता हूं। भूल-चूक लेनी-देनी। हां इतना आश्वस्त ज़रूर करना चाहूंगा कि ये सोच किसी सिंहासन पर कब्ज़ा करने के लिए नहीं है इसलिए पेट में हौल मचाने की ज़रूरत नहीं है।

आपका
राकेश

4 comments:

  1. हाहाहाहा, हौल मच जाएगी जनाब फिर भी कहीं किसी किसी पेट में, आपके यकीन दिला भर देने से क्या फर्क पड़ जाएगा जैसे सोचने की आदत आपकी नहीं छूट रही है, वैसे ही पेट में हौल मचने की बीमारी भी एक लत है जिसका उपचार कॉन्सटिपेशन की तर्ज पर किसी वैद्य या डॉक्टर के पास नहीं है...सो मैं तो यही कहूंगा कि आप अपनी बीमारी मतलब सोचने की बीमारी को इन्ज्वॉय करिए जैसे पेट में हौल मचने को लोग इन्ज्वॉय करते हैं, ठीक वैसे ही...

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  2. aap jaise log sonchna band kar denge to hum jaise log kaise sonchenge.zara sochiye to.

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  3. मेरे सवालों के जवाब बाबा से लेकर बाबूजी, भईया और जीजी, दादी और अम्मा तक सबके पास होती। सरल जवाब जो एकबार में समझ आ जाता था। पर अब न जाने क्या हो गया है सवालों के जवाब नहीं मिलते। मिलते हैं तो उलझे। रिश्ते भी अब कितने पेचीदा हो गए हैं अचानक।
    पहले तो बधाई इस सुंदर लेखन की ......
    पढने लगी तो पढ़ती चली गयी .....
    बाबा की बातें फेंकू की बाते ...
    बालमन की बातें और ...
    अब रिश्तों में पड़ी गाठों की बातें ....
    बहुत ही उम्दा लेखन ....

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  4. आईना मुझसे मेरी पहले सी सूरत मांगे...मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगे...सच कहा सर जी...पापी पेट की भूख ने इतना स्वार्थी बना दिया कि इसी गुत्थम गुत्थी में वो पुरानी यादें दबीं रह जाती हैं जिनमे वास्तविकता था..वास्तविक जीवन का सुख था...कभी कभी तो सच में अपनी वास्तविकता ढ़ूढ़ने की कोशिश करनी होती है...स्कूल से बंक मारने में जो मजा था आज ऑफिस से छुट्टी मिलने पर नहीं मिलता..घर गांव में जाने पर लगता है कि अब अपना अस्तित्व अपनी पहचान मांग रहा है...अब वो शहर भी बदल गया..शहर के लोग भी और शायद सबसे ज्यादा तो हम बदल गए है...ये शहर भूला मुझे..मैं ये शहर भूल गया...बहुत अच्छा लेख है गुरुजी...लिखते रहिए और सोचते रहिए..भले ही उन तथाकथित सोचाड़ू लोगों की पेट की हूल अल्सर के सड़े गोले में बदल जाए...बहुत अच्छा सर..

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