
कुछ तो याद है
कुछ भूल गया हूं...
जो भूल गया शायद वो ज़रूरी था
बिल्कुल उबलते पानी की तरह
एक एक कर सतह उड़ती रही
हर परत जो आज थी, अभी थी
मिटती रही
मिटाना ज़रूरी था नया लिखने के लिए
पर आजकल...
एक अजीब सी मुश्किल है
सपने थकाने लगे हैं...
सपने गहरी नींद से जगाने लगे हैं
सपनों में वो परतें दिखती हैं...
सपनों में वो परते घेरती हैं
परतें दरकी हुई नज़र आती हैं
बेज़ार सी...
उन परतों को हटाकर
बहुत कुछ चुनता हूं...
बहुत सारे उजाले मुट्ठियों में भरता हूं
पर जब आंख खुलती हैं...
मुट्ठियां भिंची होती हैं
खाली मुट्ठियां...
आजकल न जाने क्यों, सुबह जागने से होती है...