Sunday, March 7, 2010
मैं ज़िंदा हूं...
कलम बुझ रही है
नहीं, कलम बिक रही है
कलम ज़िंदा नहीं अब
हरारत होती जो जिस्म में...
तो लिखती, बोलती, उधेड़ती
नहीं, कलम ज़िंदा है पर टूट गई है...
तस्वीरें ज्यादा बोलती हैं
तस्वीरें जो अच्छी लगे
कलम ने एक समझौता किया है
उससे, जिसने उसे ज़िंदा रहने का मौका दिया है
सांसे चल रही हैं 'वेंटिलेटर' पर...
कलम चीख नहीं सकती
कलम अवसाद ओढ़े है
कलम लिखे तो खून रिसता है
कलम ज़ुबां ढूंढ़ती है
सुना है कलम ने ज़िंदगी को गिरवी रख
सांसे खरीदी हैं
नहीं, कलम नहीं मरी
अब वो हाथ नहीं हैं
जिनमें ज़िंदगी की जुंबिश थी
हर आदमी के दर्द की खलिश थी
दरअसल मरा वो आदमी है
जिसके साथ उसने बना लिया था
एक मरासिम...
कलम बुझेगी नहीं
वो लौटेगी...
गर वो आदमी लौटेगा
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बहुत पहले एक इंटरव्यू किया था प्रभात खबर के लिए,अनिल चमड़िया के साथ...बहुत हद तक इसी संदर्भ में..बाजार की भाषा में कहें तो मीडिया के बदलते रूख पर और भावनाओं की भाषा में कहें तो कलम उठाने वाले हाथों की ईमानदारी के ऊपर...मेरे एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि बहुत जल्द चीजें बदलेंगी...कुछ लोग ईमानदारी से लगे हैं अब भी बस फर्क ये है कि उनकी आवाज दबा दी गई है..समाज चीजों को तय करेगा मीडिया नहीं बहुत जल्द वो दिन लौटने वाले हैं...और अंत में दर्द का हद से गुजरना है दवा बन जाना..मैं इस उम्मीद से इत्तेफाक रखता हूं...उम्मीद है कलम की ताकत दबेगी नहीं...
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