Tuesday, August 3, 2010

बनारस चर्चा...

बनारस की बात पिछले अंक में हुई थी। बनारस ज़ुकाम की तरह मुझे लंबे अरसे से परेशान कर रहा है हांलाकि ज़ुकाम के हल्के सुरूर का मज़ा ले रहा हूं। कल सपने में देख रहा था अपना शहर और उसकी भीगी-भीगी सुबह। भीगी-भीगी सुबह इसलिए क्योंकि सुबह के वक्त यहां कि लगभग हर संकरी गली पानी से तर-बतर होती है। सरकारी ‘कल’ (हमारे यहां नल को कल बोलते हैं) तो अब कम ही बचे हैं लेकिन प्राइवेट कलों की और टुल्लु की संख्या बढ़ गई है लिहाज़ा घर के बाहर जुगाड़ के पाइप से हर्रउल पानी आता है और उसको बज़रिए टुल्लू पंप घर में पहुंचाया जाता है।

सबेरे के वक्त सुंघनी या गुल दांतो पर रगड़ते, संकरी गलियों में चबूतरे पर या फिर घर की ड्योढ़ी पर बैठे...बतकुच्चन करते लोग तेज़ी से आंखों के सामने घूमते चले गए। पानी यहां से वहां तक फैल जाता है। डालडा के दस किलोइया डब्बे से लेकर बड़े-बड़े गैलनों में पानी भरा जाता है। पानी पर से बहस शुरू होती है और उसे घसीटते-घसीटते ईरान की गैस पाइप लाइन और अमेरिका के चुनाव से लेकर क्लिंटन की बेटी चेल्सिया की शादी और फिर उपनिषदों के गूढ़ अर्थों की लंठईकृत व्याख्या कर बकचोदी खत्म होती है।

मेरे कुछ मित्र हैं जो अब बनारसी नहीं रहे, दरअसल मेट्रो के ठिठुराकर अकड़ पैदा कर देनेवाले संक्रमण ने इतना चउचक असर डाला कि बनारस में लोगों के हाथ फेंक कर चलने से उन्हे एलर्जी होने लग गई। जिस बनारस ने उन्हें ज़िंदगी की पेचीदा गलियों से निकलने की न जाने कितनी बार बेहद मस्त अंदाज़ में तरकीब सिखाई अब वही बनारस उनके लिए अप्रासंगिक है। उसकी उलझी और संकरी गलियों को देखकर, उसमें घुसनेपर उन्हे ‘बुल शिट’ याद आता है। कोसना भी ऐसा होता है जैसे कोई उत्तरआधुनिक पुत्र अपने पिता को कोस रहा हो। बस चले और अगर बनारस कोई ज़िंदा शख्स हो तो ये सचमुच उसे किसी ‘ओल्ड एज होमनुमा’ जगह पर डाल दें। चूंकि मैं लिख रहा हूं और इसे आप जैसे भद्रजन पढ़ रहे हैं लिहाज़ा लिखने की मर्यादा का निर्वहन करना है वरना मेरे पास ‘बनारसी रूद्री’ का खज़ाना ऐसे लोगों के लिए है। उस ‘रूद्री’ पर विस्तार से लिखूंगा फिर कभी।

हां तो छोड़िए ऐसे...वालों को। मैं कह रहा था बनारस याद आ रहा है। और बेइंतहा, न जाने क्यूं ऐसा लगता है बूढ़े बनारस को जवान बनाने की कोशिश चल रही है। डेंट पेंट चल रहा है हर तरफ, बिना उससे पूछे कि “बुढ़उ मजा आवत हौ रंगीन भईले में।“

दरअसल बनारस के दोनों टाइप के लौंडे जो सत्तर के दशक उत्तरार्द्ध, अस्सी और नब्बे के दशक में पैदा हुए उसे दक्खिन लगाने पर तुले हुए हैं और यकीन मानिए बउरहट के हद तक।
 
(इन दो टाइप के लोगों के बारे में अगले अंक में...)

5 comments:

  1. वाकई अपना शहर ऐसे ही याद आता है और उसे बदलता देख बहुत तकलीफ होती है.

    इन एलर्जी वाले बाबूओं का इलाज तो महा रुद्री यज्ञ ही है मगर जाने दिजिये.. :)


    एक निवेदन:

    कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लीजिये
    वर्ड वेरीफिकेशन हटाने के लिए:
    डैशबोर्ड>सेटिंग्स>कमेन्टस>Show word verification for comments?>
    इसमें ’नो’ का विकल्प चुन लें..बस हो गया..जितना सरल है इसे हटाना, उतना ही मुश्किल-इसे भरना!! यकीन मानिये.

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  2. sahii likhaa hai aapne aaj kal to sadakoo par khetii baarii karane ke liye sabhhi vibhaag use 3 saal se khod rahe hai

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  3. वाकई बउरहट अब काबू में आने वाली नहीं लगती..बनारस की गलियों से जिन्होंने रेत पर चलकर अपने कदमों को पहचाना हो या फिर ईनार(कुआं) के पानी में हिलती डुलती अपनी परछाई को, कहीं बसने की जिद्द में ये लौंडे बहक गए शायद और फिर बनारसी पान की महक उन्हें एमसीडी और बीएमसी के कचरों की महक से खराब लगने लगी है...खैर छोड़िए...और आप अपने आर्टिकल्स से बनारस की खुशबू को यूं ही हम सब तक पहुंचाते रहिए, शुक्रिया रहेगा ठेठ में, मेरी तरफ से और इंतजार उन दो टाइप के लोगों के बारे में जानने का भी

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  4. धन्यवाद उड़न तश्तरी जी टेक्निक के लिए।

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  5. @ डालडा के दस किलोइया डब्बे से लेकर बड़े-बड़े गैलनों में पानी भरा जाता है। पानी पर से बहस शुरू होती है और उसे घसीटते-घसीटते ईरान की गैस पाइप लाइन और अमेरिका के चुनाव से लेकर क्लिंटन की बेटी चेल्सिया की शादी और फिर उपनिषदों के गूढ़ अर्थों की लंठईकृत व्याख्या कर बकचोदी खत्म होती है।

    @बिना उससे पूछे कि “बुढ़उ मजा आवत हौ रंगीन भईले में।“

    बहुत खूब .....!!

    कुछ-कुछ ज्ञान चतुर्वेदी जैसी भाषा -शैली ......
    पहली अप्रैल को मैंने उन्हें फोन किया , "आज समाचार में सुना है आपको साहित्य अकादमी अवार्ड मिला है "
    वो हतप्रद ...!
    .मैं हंस पड़ी... तो वे तुरंत समझ गए . !
    आपकी भाष-शैली ने वो बात याद दिला दी .....!!

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