Saturday, August 7, 2010

'लाउड होता बनारस'

बउराना दोनों ओर है। एक उनमें जो बनारस को छोड़कर किसी मेट्रो में प्रवासी की भूमिका में है और बनारस का नाम आते ही या फिर बनारस में पैर रखते ही उह-आह-आउचनुमा सोफीस्टिकेटड टाइप शब्द उगलते हैं। दूसरे वो जो बनारस में रहकर ही बनारस की छाती पर मूंग दल रहे हैं। एक बाहर से बनारस के न बदलने पर नाक भौं सिकोड़ता है, कब्जियत का चेहरा बनाता है दूसरा अंदर ही अंदर बनारस को खलिया रहा है। जिसके लिए बनारस की संस्कृति, बनारस की कला, बनारस की धरोहर, बनारस का संगीत सब बिकाऊ है। साहब बाज़ार का विरोध नहीं है पर ये तो ज़रूर निश्चित होना चाहिए न, कि कितना बाज़ार। आप कह सकते हैं कि अगर संजोएगा तभी तो बेचेगा। लेकिन आप ज़रा लंबे अरसे के लिए बनारस में रुकिए आपको पता चल जाएगा संजोना उतना ही हो रहा है जितना बिके, संजोना बस ऊपर-ऊपर ही से है। दरअसल अंदर से, भीतर से बड़ा ही खतरनाक खेल चल रहा है। कहीं ऐसा न हो कि आप ऊपर ही ऊपर चमक में फंसे रह जाएं, या अटके रह जाएं और जब आप बनारस को समझने के लिए इसे स्पर्श करें तो ये भरभरा कर गिर जाए।


एक लंबे अरसे के बाद बनारस गया अपने बनारस में। पर न जाने क्यूं ये बनारस बूढ़ा थका हुआ, अपनों से उपेक्षित घर के किसी अंधेरे कमरे में चुपचाप मटमैले बिस्तर पर टिका बुज़ुर्ग महसूस हुआ। लगा कि उसे ऐसा बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। बनारसी फक्कड़पन की संस्कृति भी कितनी सोफिस्टिकेटेड और प्रेंज़ेटेबल हो गई है। फक्कड़पने में भी सलीका रखा जा रहा है।

मुझे शिकायत बदलाव से नहीं है। पर बदलाव सिर्फ और सिर्फ खुद के लिए हो रहा है ये बदलाव ज्य़ादा और ज्यादा कमाने के इरादे से घर के चूल्हे, बर्तन और यहां तक की अपनों को बेचने जैसा लग रहा है। पहले गंगा की आरती होती थी जब तो घंटा घड़ियाल की आवाज़ें कहीं अंतस को छूती थीं। उन्हे लाउडस्पीकर के ज़रिए लाउड नहीं किया जाता था अब तो सब लाउड ही लाउड है। बनारस की पूरी ज़िंदगी इसी लाउडपने में समा गई है। पूरी फक्कड़ संस्कृति को खींच कर इतना नाटकीय और लाउड इन बनारस के लालों ने कर दिया है कि खरीदने वालों और तमाशा देखने वालों की भीड़ तो लग रही है पर खरीद कर ले जा रहे हैं संस्कृति की भस्म।

त्यौहार वैसे तो हर शहर में मनाए जाते हैं फिर वो हिंदुओं के हों या मुसलमानों के या फिर किसी और धर्म के खुशी और रंगत हर जगह दिखती है। पर मैं बेतक्कल्लुफ होकर ये फरमाउंगा कि अब वो रंगत यकीन मानिए बनारस के किसी त्योहार में नहीं है। अब भीड़ नज़र आती है त्योहारों के मौकों पर...लेकिन भीड़ मस्त कम बदहवास ज्यादा दिखती है। अपने तरह से, अपने हिसाब से फूहड़पन के नए नए पैरमीटर सेट किए जाते हैं मजाल है कि आप बोल दें...बस यही समझिए कि “सटला त गईला बेटा।” और अगर आपके साथ कोई हादसा नहीं हुआ तो भी कोई गुटखा मुंह में घुलाए...भोकर देगा...यही त हौ बनारस।

(शेष आगे...)

3 comments:

  1. अगली कडी का इंतजार रहेगा !!

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  2. बनारस बदला है... और जब दुनिया बदलाव के दौर से गुजर रही है तो लाजिमी भी है इसका बदलना... लेकिन ये बदलाव फूहड़पन की तरफ ले जाये तो यकीनन दुख होता है... भीतर कुछ चटखता सा है... क्योंकि जिंदगी और जिंदादिली की तहजीब सिखानेवाले बनारस के बदलने का मतलब सिर्फ एक शहर के बदलने का नहीं है, बल्कि एक संस्कृति के बदलने का है... उस संस्कृति के जिसकी दुनिया दीवानी रही है... और जिसके बारे में जानने के लिए दुनिया के कोने कोने से लोग सदियों से आते रहे हैं... लेकिन बनारस को जितना मैने जाना और समझा है उस आधार पर यहां एक बात मैं जरुर कहना चाहूंगा कि बनारस को ठेल कर किनारे लगानेवाले चाहे जितनी कोशिशें कर लें, आखिरश बनारस फिर अपनी जगह खड़ा रहेगा... बाजार को ठेंगा दिखाते हुए अपनी पूरी ठसक और गरिमा के साथ... आखिर शिव और कबीर का शहर है ये... और ये उम्मीदें तो तब और बढ़ जाती हैं जब बनारस के बारे में संजीदगी से सोंचने वाले आप जैसे लोग हों... कबीर के शब्दों को उधार लेकर कहें तो, हम ना मरब मरिहैं संसारा... तो गुरु चिंता करने की कौनो बात ना हौ बनारस कभी खत्म नहीं होगा... बनारस की भाषा में इसको किनारे लगानेवाले .....के खुद ही किनारे लग जाएंगे...
    बात थोड़ी लंबी हो गई क्योंकि बनारस पर आपके सारे आलेख पढ़ने के बाद लिखा है... अगली कड़ी का इंताजार है...

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  3. सर, यही सोच ज़िंदा रखनी है। साथ ही बदलाव को सकारात्मक दिशा देने की कोशिश भी। एक चीज़ और...दरअसल बनारस में बनारसपना इसलिए पनपा क्योंकि वैसे लोग एक जगह इकट्ठा होते चले गए जो फक्कड़पने और आवारगी की असल तासीर को समझते थे। फिर चाहे किसी भी मजहब के रहे हों या क्षेत्र या जाति के। और यही वजह रही कि बनारस में हर जगह के लोग, हर भाषा के लोग बसते चले गए। और साथ रहते हुए आनंद के उस चरम को छुआ जिसे 'मोक्ष' कहते हैं। राहत इसी बात की है कि असल में मोक्ष के इस अर्थ को सही मायने में समझने वाले आप जैसे लोग भी है। आप कहीं भी रहे किसी भी क्षेत्र को बिलॉंग करते हों, किसी भी संस्कृति के हों...पर आप बनारसी ही हैं। अगर आप फक्कड़ हैं... त खिंचले रहा गुरू चउचक...

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