Tuesday, December 16, 2014

पत्रकारिता द्वितीयोध्याय:

तो वटवृक्ष के नीचे मुनि नारद और शुकदेव जी महाराज आसनारूढ़ हुए। नारद जी ने कहा- "हे मुनिवर ध्यान से बैठिएगा जिसप्रकार मिष्ठान के सुगंध से चीटिंयां खींची चली आती हैं उसी प्रकार ज्ञान की सुगंध से आलोचक रूपी चींटे पहले ही जगह खोज के बैठ जाते हैं। कहीं ऐसा न हों आप उनपर बैठ जाएं और वो...नारायण, नारायण।"

शुकदेव जी ने मुनिवर को प्रणाम करते अपनी कुशल क्षेम को लेकर उनकी चिंता की सराहाना की उनको बारंबार प्रणाम किया। दोनों की विद्वत् ऋषि वट वृक्ष की छाया में बैठे। आसमान में खलीहर खड़े देवताओं ने दोनों ऋषियों का जयघोष करते पुष्प वर्षा की। लेकिन जैसे ही पता चला कि इस मौके का कोई लाइव कवरेज नहीं है वो मुंह बनाए वहां से खिसक लिए।

शुकदेव जी ने एकबार फिर नारद के प्रणाम करते उनसे निवेदन किया कि - "हे मुनिश्रेष्ठ कृपा कर इस जिज्ञासु को पत्रकारिता के समूल दर्शन का लाभ दें।" "हे ऋषिवर आपको तो राजकीय पत्रकारिता कर इतना मिल जाता है कि कुछ करने-वरने की आवश्यकता नहीं किंतु मुझे तो यूं ही रगड़-घिस करनी पड़ती है। सो हे भगवन् ज्ञान दें ताकि कुछ लिख कर उसको छपवा कर मैं भी कॉपी राइट का सुख प्राप्त कर जगत को तारूं।"

इतना सुनते ही मुनिवर नारद अत्यधिक प्रसन्न भए। उन्होने कहा - हे ऋषिवर आपके ऐसा कथन से मैं अत्यधिक प्रसन्न हुआ हूं। आपकी पत्रकारिता के ज्ञान के प्रति उत्कट इच्छा और आसक्ति को देख मैं आनंदित हुआ। अब मैं जान गया हूं कि मैं किसी गलत व्यक्ति के साथ समय खोटा नहीं कर रहा हूं। बस आपसे मेरे लिए पहले ज्ञान की गुरू दक्षिणा यही है कि अपनी पुस्तक की शुरुआत में मेरी दृष्टि और मेरे ज्ञान के आलोक से चुंधियाती एक सुंदर प्रशस्ति लिखिएगा। और मजबूत तरीके से मुझे भारत रत्न या नोबल जैसा कोई सम्मान दिए जाने की वकालत कर दीजिएगा।

ऐसा कहते नारद मुनि के आंखों में पल भर को अजब सी चमक उठी फिर उन्होने आसपास देखा कि किसी ने सुना तो नहीं। शुकदेव जी महाराज ने नारद जी के इस निवेदन पर उनकी स्तुति गाई। वही पास में गिरे कुछ वन फूलों से उनका सम्मान और अभिषेक किया और इस प्रकार से पत्रकारिता द्वितियोध्याय: का प्रारंभ हुआ। ऋषि नारद ने एकतारे को टनटनाते कहा- हे "ऋषिवर जो अबतक जो अबतक गूढ़ से गूढ़ है। जहां सभी कलाएं स्वयं सिद्ध हैं। जो कथ होकर भी अकथ् है। जो संवाद होते हुए भी नि:संवाद है। जो गंभीर होते हुए भी नर्तकी के समान वाचाल है। जो साम है, दाम है दंड है भेद है, जो अविवेकशील विवेक है, जो ज्ञान से ऊपर का ज्ञान है, जो मर्दन है, जो गर्जन है, जो कृपण है, जो क्रांति से लाल है, उस महान पत्रकारिता के विलक्षण ज्ञान का विस्तारपूर्वक वर्णन करता हू ध्यान पूर्वक सुनें।"

नारद मुनि के ऐसा कहते ही आकाश से फिर देवताओं ने जय घोष करते फूल बरसाए। इन देवताओं का नेतृत्व देवराज इंद्र कर रहे थे। और बाकि सभी देवता उन्ही की चापलूसी के तहत वहां उपस्थित भए थे।

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