Monday, November 17, 2014

बाज़ार का "मारीच"


मरीचिका शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई ये मैं नहीं जानता। मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं। पर जब सोचता हूं तो मैं इसे मारीच के इर्द-गिर्द पाता हूं। मारीच रावण के अंकल (मामा) हुआ करते थे। अय्यार (जो भेस बदलने में माहिर होता है, ध्यान दीजिए भेस!!! भैंस नहीं...) थे। मारीच ही थे जिन्होने स्वर्ण मृग का भेस धरकर मां सीता को मोहित किया था। मारीच महाभियानों में ऐसे ही अपनी भूमिका निभाते हैं। भेस बदलकर आते हैं ईश्वर की लीलाओं के लिए पथ तैयार करते हैं और मारे जाते हैं। मारीच मायावी होते हैं, कुटिल भी। कुटिल चाणक्य भी थे पर उनके पास मृग बनने की सिद्धि नहीं थी। सो वो ईश्वर की लीलाओं के लिए रास्ता नहीं बना सके। वो बेचारे एक दलित बच्चे को राजा बनाने औऱ उसे इतिहास में दर्ज़ कराने तक ही योगदान दे पाए।
कभी लगता है मारीच के साथ इतिहासकारों ने कितना बड़ा अन्याय किया। इतना बड़ा योगदान कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। ज़रा फर्ज़ करिए मारीच ने रावण के आदेश को ही मानने से इंकार कर दिया होता- कि देखो रावण भांजे हो ...भांजे की तरह रहो । या कि ऐन वक्त पर "मृग कन्वर्ज़न मंत्र" भूल गया होता। भई मैनुअल गड़बड़ियां तो कभी भी हो सकती हैं। खैर...तो मारीच चूका नहीं, कर्तव्य पर उसने खुद को कसा। लेकिन पुराणपंथियों ने मारीच को ईश्वर को दिए महान लीला के अवसर को साजिशन खत्म कर दिया।
अब न जाने क्यों लगता है, मारीच फिर से अवतरित हो चुका है। बाज़ार के तौर पर वो मरीचिका गढ़ रहा है। इस बार किसी ईश्वर की लीला की भूमिका तैयार करने के लिए नहीं बल्कि पुरातन इतिहासकारों के द्वारा उसके साथ की गई नाइंसाफी का बदला इंसानों से लेने के लिए।

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