Monday, November 24, 2014

पत्रकारिता


“कुतुबुद्दीन ऐबक को जानते हौ ?”
“हां क्यों नहीं, दरअसल कुतुबमिनार में एक ऐब है उसे ही उर्दू में कुतुबुद्दीन ऐबक कहते हैं।”
“खुदा खैर करे, अबे यही पढ़ते हो तुम ?”- “यही जानकारी रखकर पत्रकार बनोगे?”- जमील चचा आग बबूला होते हुए बिसंभर शर्मा पर चढ़ गए।
“चचा किस दौर की बात कर रहे हो”- गुटखा फाड़के मुंह में झाड़ते बिसंभर बोले
“अरे पढ़ना लिखना पहले हुआ करता था आज का युग सूचना क्रांति का युग है। इंटरनेट में गूगल गुरू बइठे हैं, टन्न से टाइप करो अउर दन्न से जानकारी मिलैगी फ्री फंड में। आपकी सलाह की तरह”
“बेटा बिसंभर तुम तो खरपत्तू साव के बगल में गर्मी में बर्फ का गोला और जाड़े में गर्म छोला की दुकान खोल लो, कसम से बता रहे हैं बहुत कमाई होगी पत्रकारिता-वत्रकारिता तुम्हारे बस की बात नहीं है।”- चाय की खाली गिलास मेज पर रखते जमील चाचा बोले।
जमील चाचा की बात बिसंभर को लग गई। बिसंभर ने चचा को हाथ से रुकने का इशारा किया, चाय की दुकान के बाहर जाकर दो-चार किलो गुटखा थूका और फिर हाजिर हुए। बोले- “चचा हम तो एक सेर पर यकीन करते हैं”-
“खुदही को करो इतना बुलंद कि खुदा खुदै आकर पूछे बताऔ राजा क्या है।”
चचा इस बार अपनी हंसी रोक नहीं पाए और ठठा कर हंसने लगे।
“बिसंभर शेर तुम्हारा है क्या बे?”
“क्या चचा आप भी हिंया तो मत खिचिंए कहां हम ‘क्रिमिनल पत्रकारिता’ के ख्वाब वाले लोग” मेज पर कुहनी टिकाते बिसंभर आगे बोले- “देखिए चचा हमको बनना है ‘क्रिमिनल रिपोर्टर’ ”
“क्रिमिनल रिपोर्टर कि क्राइम रिपोर्टर बे?” टोकते हुए चचा ने पूछा।
“हां हां वही।” – बिसंभर खिझियाते हुए बोले
“अब देखिए पत्रकारिता पेन घिसने और इतिहास रटनेवाली रही नहीं अब बस वर्तमान समझिए काम हो गया” – दो कप चाय का इशारा करते बिसंभर आगे बोलते गए।
“क्राइम रिपोर्टिंग में तो बस आपको एक माइक पकड़ना है चैनल का...और मौका-ए-वारदात पर दनदनाते हुए पहुंच जाना है।...और बस सवाल खड़े करने शुरू कर देने हैं।” – बिसंभर कंधा उचकाते बोले
“अबे सवाल न हुआ खटिया हो गई” – चचा तुनकते हुए बोले “पढ़ोगे लिखोगे नहीं तो सवाल क्या खाक पूछोगे?”
"आपकी सुई भी चचा घूम फिर कर वहीं अटक जाती है, पढ़ाई...हूं।“
“घटना कोई हो सवाल तो वही रहते हैं न?”
“जैसे?” – चचा ने सवाल पूछा
“जैसे कि पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है... वगैरह...वगैरह...।” –बिसंभर एक सांस में बोलते गए।
चाय आ गई थी, बिसंभर पर नज़रे गड़ाए जमील चाचा ने एक घूंट हलक के नीचे उतारा। बिसंभर को चाय से मतलब नहीं था वो बोल रहे थे-
“चचा देखिएगा दरोगा से लेके पुलिस का बड़ा से बड़ा अधिकारी हमारी जेब में होगा। आप कहेंगे एसपी से मिलना है...हम खलीता में हाथ डाल के निकालेंगे अउर बोलेंगे इ लौ...मिल लौ...”
बिसंभर को समझाना बेकार था। चचा ने फटाफट चाय खतम की और बिसंभर के कंधे का सहारा लेकर उठते हुए बोले- “गुरू हम निकलेंगे अब दफ्तर जाना है।” बिसंभर को लगा चचा कनविंस हो गए, बड़े अदब के साथ प्रणाम किया और बाहर तक उनके साथ निकले भी। सीढ़ियां उतर कर जमील चाचा थोड़ा रुके फिर बिसंभर की तरफ घूमते हुए बोले- “गुरू एक बात बताओ जिस दिन गूगल गुरू गड़बड़ा गए...या अटक गए तब क्या होगा अखबार न निकलेगा, टीवी पर न्यूज़ न चलेगी तब कौन बताएगा इतिहास?”
बिसंभर को बात न समझ आनी थी न आई। पत्रकारिता का कोर्स पूरा करते ही इंटर्नशिप का मौका भी आया। बिसंभर जुगाड़ू प्रवृत्ति के थे सो जुगाड़ ने काम किया और एक चैनल में हो गए इंटर्न। छह पॉकेट का पैंट और आठ पकेटिया हाफ जैकेट झाड़े बिसंभर यहां से वहां दौड़ते, ये बाइट वो पैकेज करते समय बीत रहा था। मन में तरंग उठती माइक, कैमरा...कभी-कभी खुदै एक्शन बोल के चालू हो जाते गलियारे में। जब कोई प्रोड्यूसर उन्हे बाइट या पैकेज कटवाने के लिए देता तो तन-बदन में आग लग जाती। कब्ज़नुमा मुंह बना लेते। मन ही मन बोलते “कमबख्त मेरी क्रिमिनल योग्यता को ये परख ही नहीं रहा।”
कभी-कभी तो मन इतना बहकता कि लगता खड़े हो जाएं न्यूज़ रूम में और चीखने लगें-
“पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है...
कुल मिलकार कसमसाते काम चल रहा था। दीन दुनिया से बेपरवाह, खबर देखते न खबर समझते, बस हिंया बैठते...कोई उठा देता तो हुंआ चले जाते....।
जुगाड़ यहां भी खोज ही रहे थे कि सही साट कोई मिले और क्राइम की दुनिया में वो कदम रख ही लें। इस बीच फुटकर काम निपटाते रहे। गूगल को वो बड़े काम की चीज़ मानते उनकी नज़र में अकेला वही था जो ज्ञानी था। बाकि उनकी नज़र में अज्ञानी और पुरानी मीडिया के कलम घिस्सू पत्रकार थे। हां एंकर उनकी नज़र में गूगल के बाद दूसरा ज्ञानी था। और उनके मुताबिक उत्तर आधुनिक मीडिया का प्राणी था। पर एक दिन एक घटना घटी-
हुआ ये कि एक प्रोड्यूसर ने उन्हे गांधी जी की तस्वीर निकालने को कहा। इस काम में तो गुरू माहिर थे। टप से गूगल खोला और टाइप कर दिया गांधी...। पर इस बार गूगल गुरू ने गच्चा दे दिया। गांधी टाइप करते ही जितने गांधी उपनाम वाले लोगों की फोटो गूगल गुरू की स्मृति में अंकित थी सभी स्क्रीन पर अवतरित हो गए और लगे मुस्कुराने। बिसंभर परेशान, बेड़ा गर्क इतने गांधी किसको निकालें। सोचा एक्कड़-बक्कड़ करके चुन लें...पर उसमें भी तो समय लगता पचासों फोटो थी।
समझ नहीं आ रहा था कि किसे मौका-ए-वारदात पर शिनाख्त के लिए बुलाएं। आखिरकार थक हारकर प्रोड्यूसर को ही आवाज़ दी। प्रोड्यूसर आए तो समस्या रखी- “सर, यहां तो कई गांधी दिख रहे हैं इसमें से गांधी जी कौन है?”
प्रोड्यूसर को लगा कि वो मज़ाक कर रह हैं। खीझते हुए बोला- “मज़ाक मत कर जल्दी ‘सेव’ कर पैकेज में लगाना है”
“अरे सर, मुझे सच में नहीं मालूम”
“तू गांधी को नहीं पहचानता”- इस बार प्रोड्यूसर का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
प्रोड्यूसर के लहज़े से खिन्न बिसंभर जी कंधा उचकाते बोले- “कोई ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति हर किसी को जानता हो”
प्रोड्यूसर महोदय हत्थे से उखड़ रहे थे, उन्होने एक तस्वीर को क्लिक किया और खट से एक तस्वीर स्क्रीन पर आई। इस तस्वीर में गांधी और नेहरू एक साथ बैठे थे। उन्होने बिसंभर से पूछा – “इस तस्वीर में कौन-कौन है?”
बिसंभर को ये सवाल थोड़ा आसान लगा जवाब दिया- “ये एक नेता हैं और उनके साथ कोई गांववाला बैठा है।”
प्रोड्यूसर साहब सर पीटते हुए भाग खड़े हुए। जब लौटे तो उनके साथ इनपुट संपादक तिवारी जी थे। कौन है, कहां है कैसा है...छोटे वाक्यों के साथ उनकी आमद हुई। जैसे ‘एलियन’ पकड़ में आ गया हो। बिसंभर हाथ छाती से बांधे, सीना फुलाए खड़े थे।
“क्यों बे तुम गांधी जी को नहीं जानते? ” - तिवारी जी ने आते ही सवाल दागा।
“एक होते तो जान लेता हियां खचिंया भर पड़े हैं। ” बिसंभर हास्यरस के पुट में बोले।
अब तक तिवारी जी बिसंभर गुरू का टेस्ट लेने पर आमादा हो चुके थे। पूछा- “ इ बताओ भारत का प्रधानमंत्री कौन है?”
“सरदार हैं कोई” – कॉन्फिडेंस से लबरेज बिसंभर बोले।
“कौन प्रकाश सिंह बादल?” – तिवारी जी ने पूछा।
"जी,...बा..द..ल...हां हां वहीं आसमानी रंग की पगड़ी बांधे जो रहते हैं” – बिसंभर बोले
न्यूज़ रूम में खुसुर-फुसुर शुरू हो चुकी थी। कुछ इंटर्न नेट खोलकर भारत के राष्ट्रपति से लेकर, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, मुख्य न्यायाधीश आदि आदि तक का रट्टा मारना शुरू कर चुके थे। पाया गया कि कुछ प्रोड्यूसर स्तर के लोग भी कनखियों से स्क्रीन टीप रहे थे।
जो गांधी को जानते थे वो असाधारण टाइप साधारण मुंह बनाते बोलते फिर रहे थे, बताइए गांधी जो को नहीं जानते, चले हैं पत्रकारिता करने। क्या हल्की जेनेरेशन आ गई है। कुछ तो गांधी जी के साथ आई दूसरी फोटो का उंचे सुर में नाम ले ले कर प्रशंसाभिलाषि हुए जा रहा थे। कुछ ने तो आपस में गांधी की आत्म कथा की समीक्षा और गांधीवाद पर गंभीर विमर्श तक शुरू कर दिया था।
लेकिन तिवारी जी भरे हुए थे। गोरा चेहरा तवे की तरह तमतमा रहा था उसपर से लाल रंग की टीशर्ट तवे को लहका रही थी। बिसंभर स्थितिप्रज्ञ थे। उनको अभी भी लग रहा था कि भइया गांधी क्या कहीं के डीएसपी हैं या एसपी हैं कि हमारा जानना ज़रूरी है।
और हैं तो हों, एक बार ‘क्रिमिनल रिपोर्टर’ बन गए तो वो रहेंगे तो खलीते में?
लेकिन तिवारी जी सामान्य ज्ञान परीक्षण से बाज आनेवाले नहीं थे। सवाल दागा- “वित्त मंत्री क्या होता है?”
“वृत्त मंत्री यानि सर्किल अफसर।” - इस बार बिना देर किए बिसंभर ने जवाब दिया था।
“रक्षामंत्री कौन है देश का?”- तिवारी जी खीझते हुए तेज़ आवाज़ में बोले।
“बजरंग बली”
“तुम मज़ाक कर रहे हो?” तिवारी जी ने चैतन्य बिसंभर जी की आंखों में आखें गड़ाते पूछा।
“मज़ाक?... मज़ाक तो आप कर रहे हैं। मेरा ‘एरिया ऑफ इंटरेस्ट क्राइम’ है और आपने मुझे ‘पॉलिटिक्स’ में उलझा दिया है।”
बिसंभर बोलते गए- "सर, क्राइम में सवाल का जवाब थोड़े ही देना होता है, वहां तो सवाल उठाना होता है।”
“पुलिस क्या कर रही थी…”
“प्रशासन कहां सोया था…”
“आखिर कब पुलिस जागेगी…”
“क्या पुलिस के पास जवाब है...
“एसी साहब जवाब दिजिए”
“डीजीपी साहब जवाब दिजिए”
बिसंभर नॉन स्टॉप बोलते गए। आखिरकार मन की मुराद पूरी हो गई थी। उन्हे अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल ही गया था। लोग सन्न रह गए न्यूज़ रूम में ‘पिन-ड्रॉप’ ‘साइलेंस’ हो गया। तिवारी जी की जनरल नॉलेज परीक्षण शिविर में सवालों की आमद अचानक रुक गई थी। वो भौचक थे...भौचक तिवारी जी की तंद्रा अचानक टूटी। उन्होने बिसंभर जी के कंधे पर हाथ रखा...दूसरे हाथ से उनके बैग को उठाया...और बाहर गेट तक ले आए...। बड़े शांत भाव से बिसंभर जी को समझाया-“भाई मेरे, भगवान के लिए पत्रकारिता को बख्श दें। पहला क्राइम आपने पत्रकारिता में हाथ आजमाने का फैसला लेकर ही कर दिया अब मामले को यही रफा-दफा करें, इसमें बने रहने का दूसरा बड़ा क्राइम न करें कृपा होगी। अलविदा।”...लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती, कालांतर में बिसंभर शर्मा कई-कई न्यूज़ चैनलों में जुगाड़ पद्धति और चापलूसी मंत्र के ज़रिए उच्च पदों तक पर शोभायमान हुए। लोग उनके बारे में बतियाते कि उन्हे ‘चापलूसी सिद्ध’ थी। गांधी को न जानने वाले बिसंभर के ऊपर गांधी बाबा की कृपा अनवरत बनी रही वो अक्सर उनकी जेब में ठुंसे पाए जाते। जैसे-जैसे समय बीतता गया शर्मा जी ‘दलाली संहिता’ के आचार्य होने के साथ आगे चलकर ‘विद्यावाचस्पति’ भी हुए।

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